Friday, February 27, 2009

हर्फ़े ग़लत (क़ुरआनी हक़ीकतें)

सूरह अलबकर आखीर किस्त
"अल्लाह के राह में क़त्ताल करो"
कुरआन का यही एक जुमला तमाम इंसानियत के लिए चैलेंज है, जिसे कि तालिबान नंगे हथियार लेकर दुन्या के सामने खड़े हुए हैं. अल्लाह की राह क्या है? इसे कालिमा ए शहादत" ला इलाहा इल लिल लाह, मुहम्मदुर रसूल अल्लाह" यानी (एक आल्लाह के सिवा कोई अल्लाह आराध्य नहीं और मुहम्मद उसके दूत हैं) को आंख बंद करके पढ़ लीजिए और उनकी राह पर निकल पडिए या जानना चाहते हैं तो किसी मदरसे के तालिब इल्म (छात्र) से अधूरी जानकारी और वहां के मौलाना से पूरी पूरी जानकारी ले लीजिए.जो लड़के उनके हवाले होते हैं उनको खुफिया तालीम दी जाती है. मौलाना रहनुमाई करते हैं और कुरान और हदीसें इनको मंजिल तक पहंचा देते हैं. मगर ज़रा रुकिए ये सभी इन्तेहाई दर्जे धूर्त और दुष्ट लोग होते है, आप का हिन्दू नाम सुनत्ते ही सेकुलर पाठ खोल देंगे, फ़िलहाल मुझ पर ही भरोसा कर सकते हैं. हम जैसे सच्चों को इस्लाम मुनाफिक़ कहता है क्यूंकि चेतना और ज़मीर को कालिमा पहले ही खा लेता है. जी हाँ ! यही कालिमा इंसान को आदमी से मुसलमान बनाता है जो सिर्फ एक कत्ल नहीं क़त्ल का बहु वचन क़त्ताल सैकडों, हज़ारों क़त्ल करने का फ़रमान जारी करता है. यह फ़रमान किसी और का नहीं अल्लाह में बैठे मुहम्मदुर रसूल अल्लाह का होता है. अल्लाह तो अपने बन्दों का रोयाँ भी दुखाना नहीं चाहता होगा, अगर वह होगा तो बाप की तरह ही होगा.
देखिए मुहम्मद के मुंह से अल्लाह को या अल्लाह के मुंह से मुहम्मद को, यह बैंकिंग प्रोग्राम पेश करते हैं जेहाद करो - - - अल्लाह के पास आपनी जान जमा करी, मर गए तो दूसरे रोज़ ही जन्नत में दाखला, मोती के महल, हूरे, शराब, कबाब, एशे लाफानी, अगर कामयाब हुए तो जीते जी माले गनीमत का अंबार और अगर क़त्ताल से जान चुराते हो का याद रखो लौट कर अल्लाह के पास ही जाना है, वहाँ खबर ली जाएगी. कितनी मंसूबा बंद तरकीब है बे वकूफों के लिए
." और अल्लाह कि राह में क़त्ताल करो. कौन शख्स है ऐसा जो अल्लाह को क़र्ज़ दिया और फिर अल्लाह उसे बढा कर बहुत से हिस्से कर दे और अल्लाह कमी करते हैं और फराखी करते हैं और तुम इसी तरफ ले जाए जाओगे"
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत २४४+२४५)
" अगर अल्लाह को मंज़ूर होता वह लोग (मूसा के बाद किसी नबी की उम्मत)उनके बाद किए हुआ बाहम कत्ल ओ क़त्ताल नहीं करते, बाद इसके, इनके पास दलील पहुँच चुकी थी, लेकिन वह लोग बाहम मुख्तलिफ हुए सो उन में से कोई तो ईमान लाया और कोई काफिर रहा. और अगर अल्लाह को मंज़ूर होता तो वह बाहम क़त्ल ओ क़त्ताल न करते लेकिन अल्लाह जो कहते है वही करते हैं"
(सुरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत २५३)
मुहम्मद ने कैसा अल्लाह मुरत्तब किया था? क्या चाहता था वह? क्या उसे मंज़ूर था? मन मानी? मुसलमान कब तक कुरानी अज़ाब में मुब्तिला रहेगा ? कब तक यह मुट्ठी भर इस्लामी आलिम अपमी इल्म के ज़हर की मार गरीब मुस्लिम अवाम चुकाते रहेंगे,
मूसा को मिली उसके इलोही की दस हिदायतें आज क्या बिसात रखती हैं, हाँ मगर वक़्त आ गया है कि आज हम उनको बौना साबित कर रहे हैं. मूसा की उम्मत यहूद इल्म जदीद के हर शोबे में आसमान से तारे तोड़ रही है और उम्मते मुहम्मदी आसमान पर खाबों की जन्नत और दोज़ख तामीर कर रही है. इसके आधे सर फरोश तरक्की याफ़्ता कौमों के छोड़े हुए हतियार से खुद मुसलमानों पर निशाना साध रहे हैं और आधे सर फरोश इल्मी लियाक़त से दरोग फरोशी कर रहे हैं.
आयत न २४४ के स्पोर्ट में मुहम्मद फिर एक बार मुसलमानों को भड़का रहे हैं कि अल्लाह को मंज़ूर है कि हम काफिरों का क़त्ल ओ कत्तल करें .
"अल्लाह जिंदा है, संभालने वाला है, न उसको ऊंघ दबा सकती है न नींद, इसी की ममलूक है सब जो आसमानों में हैं और जो कुछ ज़मीन में है- - - -इसकी मालूमात में से किसी चीज़ को अपने अहाता ए इल्मी में नहीं ला सकते, मगर जिस कदर वह चाहे इस की कुर्सी ने सब आसमानों और ज़मीन को अपने अन्दर ले रखा है,और अल्लाह को इन दोनों की हिफाज़त कुछ गराँ नहीं गुज़रती और वह आली शान और अजीमुश्शान है"
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 255)
मुहम्मद साहब को पता नहीं क्यूँ ये बतलाने की ज़रुरत पड़ गई कि अल्लाह मियां मुर्दा नहीं हैं, उन में जान है. और वह बन्दों की तरह ला परवाह भी नहीं हैं, जिम्मेदार हैं. अफ्यून या कोई नशा नहीं करते कि ऊंगते हों, या अंटा गफ़ील हो जाएँ, सब कुछ संभाले हुए हैं, ये बात अलग है की सूखा, बाढ़, क़हत, ज़लज़ला, तो लाना ही पड़ता है. अजब ज़ौक के मखलूक हैं, जो भी हो अहेद के पक्के हैं. दोज़ख के साथ किए हुए मुआहिदा को जान लगा कर निभाएंगे, उस गरीब का पेट जो भरना है. सब से पहले उसका मुंह चीरा है, बाक़ी का बाद में - - - चालू कसमें खा कर
" दीन में ज़बरदस्ती नहीं."
कुरान में ताजाद ((विरोधाभास) का यह सब से बड़ा निशान है. दीने इस्लाम में तो इतनी ज़बरदस्ती है कि इसे मानो या जज्या दो या गुलामी कुबूल करो या तो फिर इस के मुंकिर होकर जान गंवाओ.
"दीन में ज़बरदस्ती नहीं."ये बात उस वक़्त कही गई थी जब मुहम्मद की मक्का के कुरैश से कोर दबती थी. जैसे आज भारत में मुसलामानों की कोर दब रही है, वर्ना इस्लाम का असली रूप तो तालिबानी ही है.
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 256)
दीन की बातें छोड़ कर मुहम्म्द्द फिर किस्सा गोई पर आ जाते हैं. अल्लाह से एक क़िस्सा गढ़वाते है क़िस्सा को पढ़ कर आप हैरान होंगे कि क़िस्सा गो मकानों को उनकी छतों पर गिरवाता है. कहानी पढिए, कहानी पर नहीं, कहानी कार पर मुकुरइए और उन नमाजियों पर आठ आठ आंसू बहाइए जो इसको अनजाने में अपनी नमाजों में दोहरात्ते हैं. उनके ईमान पर मातम कीजिए जो ऐसी अहमकाना बातों पर ईमान रखते हैं. फिर दिल पर पत्थर रख कर सब्र कर डालिए कि वह मय अपने बल बच्चों के, तालिबानों का नावाला बन्ने जा रहे हैं.
"तुम को इस तरह का क़िस्सा भी मालूम है, जैसे की एक शख्स था कि ऐसी बस्ती में ऐसी हालत में उसका गुज़र हुवा कि उसके मकानात अपनी छतों पर गिर गए थे, कहने लगे कि अल्लाह ताला इस बस्ती को इस के मरे पीछे किस कैफियत से जिंदा करेंगे, सो अल्लाह ताला ने उस शख्स को सौ साल जिंदा रक्खा, फिर उठाया, पूछा, कि तू कितनी मुद्दत इस हालत में रहा? उस शख्स ने जवाब दिया एक दिन रहा हूँगा या एक दिन से भी कम. अल्लाह ने फ़रमाया नहीं, बल्कि सौ बरस रहा. तू अपने खाने पीने को देख ले कि सड़ी गली नहीं और दूसरे तू अपने गधे की तरफ देख और ताकि हम तुझ को एक नज़र लोगों के लिए बना दें.और हड्डियों की तरफ देख, हम उनको किस तरह तरकीब दी देते हें, फिर उस पर गोश्त चढा देते हैं - - - बे शक अल्लाह हर चीज़ पर पूरी कुदरत रखते हैं.".
(सूरहह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 259)
मुहम्मद ऐसी ही बे सिर पैर की मिसालें कुरान में गढ़त्ते हैं जिसकी तफ़सीर निगार रफ़ू किया करते हैं..एक मुफ़स्सिर इसे यूं लिखता है - - -यानी पहले छतें गिरीं फिर उसके ऊपर दीवारें गिरीं, मुराद यह कि हादसे से बस्ती वीरान हो गई."
इस सूरह में अल्लाह ने इसी क़िस्म की तीन मिसालें और दी हैं जिन से न कोई नसीहत मिलती है, न उसमें कोई दानाई है, पढ़ कर खिस्याहट अलग होती है. अंदाजे बयान बचकाना है, बेज़ार करता है, अज़ीयत पसंद हज़रात चाहें तो कुरआन उठा कर आयत २६१ देखें. सवाल उठता है हम ऐसी बातें वास्ते सवाब पढ़ते हैं? दिन ओ रात इन्हें दोहराते हैं, क्या अनजाने में हम पागल पन की हरकत नहीं करते ? हाँ! अगर हम इसको अपनी जबान में बआवाज़ बुलंद दोहराते रहें. सुनने वाले यकीनन हमें पागल कहने लगेंगे और इन्हें छोडें, कुछ दिनों बाद हम खुद अपने आप को पागल महसूस करने लगेंगे. आम तौर पर मुसलमान इसी मरज़ का शिकार है जिस की गवाह इस की मौजूदा तस्वीर है. वह अपने मुहम्मदी अल्लाह का हुक्म मान कर ही पागल तालिबान बन चुका है.
.".(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 261)
खर्च पर मुसलसल मुहम्मदी अल्लाह की ऊट पटांग तकरीर चलती रहती है. मालदार लोगों पर उसकी नज़रे बद लगी रहती है, सूद खोरी हराम है मगर बज़रीआ सूद कमाई गई दौलते साबका हलाल हो सकती है अगर अल्लाह की साझे दारी हो जाए. रहन, बय, सूद और इन सब के साथ साथ गवाहों की हाजिरी जैसी आमियाना बातें अल्लाह हिकमत वाला खोल खोल कर समझाता है.
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 263-273)
अल्लाह ने आयतों में खर्च करने के तरीके और उस पर पाबंदियां भी लगाई हैं. कहीं पर भी मशक्क़त और ईमानदारी के साथ रिज़्क़ कमाने का मशविरा नहीं दिया है. इस के बर अक्स जेहाद लूट मार की तलकीन हर सूरह में है.
"ऐ ईमान वालो! तुम एहसान जतला कर या ईजा पहुंचा कर अपनी खैरात को बर्बाद मत करो, उस शख्स की तरह जो अपना मॉल खर्च करता है, लोगों को दिखने की ग़रज़ से और ईमान नहीं रखता - - - ऐसे लोगो को अपनी कमाई ज़रा भी हाथ न लगेगी और अल्लाह काफिरों को रास्ता न बतला देंगे."
जरा मुहम्मद की हिकमते अमली पर गौर करें कि वह लोगों से कैसे अल्लाह का टेक्स वसूलते हैं. जुमले की ब्लेक मेलिंग तवज्जेह तलब है - - -और अल्लाह काफिरों को रास्ता न बतला देंगे - - -
एक मिसाल अल्लाह की और झेलिए- - -
"भला तुम में से किसी को यह बात पसंद है कि एक बाग़ हो खजूर का और एक अंगूर का. इस के नीचे नहरें चलती हों, उस शख्स के इस बाग़ में और भी मेवे हों और उस शख्स का बुढापा आ गया हो और उसके अहलो अयाल भी हों, जान में कूवत नहीं, सो उस बाग़ पर एक बगूला आवे जिस में आग हो ,फिर वह बाग जल जावे. अल्लाह इसी तरह के नज़ाएर फरमाते हैं, तुम्हारे लिए ताकि तुम सोचो,"
(सूरह
अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 266)
" और जो सूद का बकाया है उसको छोड़ दो, अगर तुम ईमान वाले हो और अगर इस पर अमल न करोगे तो इश्तहार सुन लो अल्लाह की तरफ से कि जंग का - - - और इस के रसूल कि तरफ से. और अगर तौबा कर लो गे तो तुम्हारे अस्ल अमवाल मिल जाएँगे. न तुम किसी पर ज़ुल्म कर पाओगे, न कोई तुम पर ज़ुल्म कर पाएगा."
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 279)
एक अच्छी बात निकली मुहम्मद के मुँह से पहली बार
"लेन देन किया करो तो एक दस्तावेज़ तैयार कर लिया करो, इस पर दो मर्दों की गवाही करा लिया करो, दो मर्द न मलें तो एक मर्द और दो औरतों की गवाही ले लो"
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 283)
यानि दो औरत=एक मर्द
कुरान में एक लफ्ज़ या कोई फिकरा या अंदाजे बयान का सिलसिला बहुत देर तक कायम रहता है जैसे कोई अक्सर जाहिल लोग पढ़े लिखों की नक़्ल में पैरवी करते हैं. इस लिए भी ये उम्मी मुहम्मद का कलाम है, साबित करने के लिए लसानी तूल कलामी दरकार है. यहाँ पर धुन है लोग आप से पूछते हैं. अल्लाह का सवाल फर्जी होता है, जवाब में वह जो बात कहना चाहता है. ये जवाब एन इंसानी फितरत के मुताबिक होते हैं, जो हजारों सालों से तस्लीम शुदा हैं. जिसे आज मुस्लमान कुरानी ईजाद मानते हैं. आम मुसलमान समझता है इंसानियत, शराफत, और ईमानदारी, सब इसलाम की देन है, ज़ाहिर है उसमें तालीम की कमी है. उसे महदूद मुस्लिम मुआशरे में ही रखा गया है.
" कुरान में कीडे निकलना भर मेरा मकसद नहीं है बहुत सी अच्छी बातें हैं, इस पर मेरी नज़र क्यूँ नहीं जाती?" अक्सर ऐसे सवाल आप की नज़र के सामने मेरे खिलाफ कौधते होंगे. बहुत सी अच्छी बातें, बहुत ही पहले कही गई हैं, एक से एक अज़ीम हस्तियां और नज़रियात इसलाम से पहले इस ज़मीन पर आ चुकी हैं जिसे कि कुरानी अल्लाह तसव्वुर भी नहीं कर सकता. अच्छी और सच्ची बातें फितरी होती हैं जिनहें आलमीं सचचाइयाँ भी कह सकते हैं. कुरान में कोई एक बात भी इसकी अपनी सच्चाई या इन्फरादी सदाक़त नहीं है. हजारों बकवास और झूट के बीच अगर किसी का कोई सच आ गया हो तो उसको कुरान का नहीं कहा जा सकता,"माँ बाप की खिदमत करो" अगर कुरान कहता है तो इसकी अमली मिसाल श्रवण कुमार इस्लाम से सदियों पहले क़ायम कर चुका है. मौलाना कूप मंदूकों का मुतलिआ कुरान तक सीमित है इस लिए उनको हर बात कुरान में नज़र आती है. यही हाल अशिक्षित मुसलमानों का है.
सूरह के आखीर में अल्लाह खुद अपने आप से दुआ मांगता है, बकौल मुहम्मद कुरआन अल्लाह का कलाम है, देखिए आयत में अल्लाह अपने सुपर अल्लाह के आगे कैसे ज़ारों कतार गिडगिडा रहा है. सदियों से अपने फ़ल्सफ़े को दोहरते दोहराते मुल्ला अल्ला को बहरूपिया बना चुका है, वह दुआ मांगते वक़्त बन्दा बन जाता है. मुहम्मद दुआ मांगते हैं तो एलानिया अल्लाह बन जाते हैं. उनके मुंह से निकली बात, चाहे उनके आल औलादों के खैर के लिए हो, चाहे सय्यादों के लिए बरकत की हो, कलाम इलाही बन कर निकलती है. आले इब्राहीमा व आला आले इब्राहिम इन्नका हमीदुं मजीद. यानि आले इब्राहीम गरज यहूदियों की खैर ओ बरकत की दुआ दुन्या का हर मुस्लमान मांगता है और वही यहूदी मुसलमानों के जानी दुश्मन बने हुए हैं . हम हिदुस्तानी मुसलमान यानि अरबियों कि भाष में हिंदी मिस्कीन अरबों के जेहनी गुलाम बने हुए हैं. अल्लाह को ज़ारों कतार रो रो कर दुआ मांगने वाले पसंद हैं. यह एक तरीके का नफ़्सियति ब्लेक मेल है. रंज ओ ग़म से भरा हुआ इंसान कहीं बैठ कर जी भर के रो ले तो उसे जो राहत मिलती है, अल्लाह उसे कैश करता है,
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 284-286)

कुरान की एक बड़ी सूरह अलबकर अपनी २८६ आयातों के साथ तमाम हुई- जिसका लब्बो लुबाबा दर्ज जेल है - - -* शराब और जुवा में में बुराइयाँ हैं और अच्छइयां भी.

कुरानसार

* शराब और जुवा में बुराइयाँ हैं और अच्छइयां भी.
*खैर और खैरात में उतना ही खर्च करो जितना आसान हो.
* यतीमों के साथ मसलेहत की रिआयत रखना ज्यादा बेहतर है.
*काफिर औरतों के साथ शादी मत करो भले ही लौंडी के साथ कर लो.
*काफिर शौहर मत करो, उस से बेहतर गुलाम है.
*हैज़ एक गन्दी चीज़ है हैज़ के आलम में बीवियों से दूर रहो.
*मर्द का दर्जा औरत से बड़ा है.
*सिर्फ दो बार तलाक़ दिया है तो बीवी को अपना लो चाहे छोड़ दो.
*तलाक के बाद बीवी को दी हुई चीजें नहीं लेनी चाहिएं, मगर आपसी समझौता हो तो वापसी जायज़ है. जिसे दे कर औरत अपनी जन छुडा ले.
*तीसरे तलाक़ के बाद बीवी हराम है.
* हलाला के अमल के बाद ही पहली बीवी जायज़ होगी.
*माएँ अपनी औलाद को दो साल तक दूध पिलाएं तब तक बाप इनका ख़याल रखें. ये काम दाइयों से भी कराया जा सकता है.
*एत्काफ़ में बीवियों के पास नहीं जाना चाहिए.
*बेवाओं को शौहर के मौत के बाद चार महीना दस दिन निकाह के लिए रुकना चाहिए.
*बेवाओं को एक साल तक घर में पनाह देना चाहिए
*मुसलमानों को रमजान की शब् में जिमा हलाल हुवा.
वगैरह वगैरह सूरह कि खास बातें, इस के अलावः नाकाबिले कद्र बातें जो फुजूल कही जा सकती हैं भरी हुई हैं. तमाम आलिमान क़ुरआन को मोमिन का चैलेंज है.

मुसलमान आँख बंद कर के कहता है कुरान में निजाम हयात (जीवन-विधान) है ये बात मुल्ला, मौलवी उसके सामने इतना दोहराते हैं कि वह सोंच भी नहीं सकता कि ये उसकी जिंदगी के साथ सब से बड़ा झूट है. ऊपर की बातों में आप तलाश कीजिए कि कौन सी इन बेहूदा बातों का आज की ज़िन्दगी से वास्ता है. इसी तरह इनकी हर हर बात में झूट का अंबार रहता है. इनसे नजात दिलाना हर मोमिन का क़स्द होना चाहिए .

हर्फे गलत (सूरह अलबकर)

हज
हज जैसे ज़ेह्नी तफ़रीह में कोई तखरीबी पहलू नज़र नहीं आता सिवाय इसके कि ये मुहम्मद का अपनी क़ौम के लिए एक मुआशी ख़्वाब है. आज समाज में हज हैसियत की नुमाइश एक फैशन भी बना हुवा है. दरमियाना तबका अपनी बचत पूंजी इस पर बरबाद कर के अपने बुढापे को ठन ठन गोपाल कर लेता है, जो अफ़सोस का मुक़ाम है. हज हर मुस्लमान पर एक तरह का उस के मुसलमान होने का क़र्ज़ है जो मुहम्मद ने अपनी क़ौम के लिए उस पर लादा है. उम्मी की सियासत को दुन्या की हर पिछ्ड़ी हुई कौम ढो रही है.
अल्लाह कहता है - - -
"क्या तुहारा ख़याल है कि जन्नत में दाखिल होगे, हाँलाकि तुम को अभी तक इन का सा कोई अजीब वक़ेआ अभी पेश नहीं आया है जो तुम से पहले गुज़रे हैं और उन पर ऐसी ऐसी सख्ती और तंगी वाके हुई है और उन को यहाँ तक जुन्बिशें हुई हैं कि पैग़म्बर तक और जो उन के साथ अहले ईमान थे बोल उठे कि अल्लाह की मदद कब आएगी. याद रखो कि अल्लाह की इमदाद बहुत नज़दीक है"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २१३)
मुहम्मद अपने शागिर्दों को तसल्ली की भाषा में समझा रहे हैं, कि अल्लाह की मदद ज़रूर आएगी और साथ साथ एलान है कि ये कुरान अल्लाह का कलाम है. इस कशमकश को मुसलमान सदियों से झेल रहा है कि इसे अल्लाह का कलाम माने या मुहम्मद का.
ईमान लाने वालों ने इस्लाम कुबूल करके मुसीबत मोल ले ली है. उन के लिए अल्लाह फ़रमाता है - - -
तालिबानी आयत
" जेहाद करना तुम पर फ़र्ज़ कर दिया गया है और वह तुम को गराँ है और यह बात मुमकिन है तुम किसी अम्र को गराँ समझो और वह तुम्हारे ख़ैर में हो और मुमकिन है तुम किसी अमर को मरगूब समझो और वह तुहारे हक में खराबी हो और अल्लाह सब जानने वाले हैं और तुम नहीं जानते,"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २१४)
नमाज़, रोजा, ज़कात, हज, जैसे बेसूद और मुहमिल अमल माना कि कभी न ख़त्म होने वाले अमले ख़ैर होंगे मगर ये जेहाद भी कभी न ख़त्म होने वाला अल्लाह का फरमाने अमल है कि जब तक ज़मीन पर एक भी गैर मुस्लिम बचे या एक भी मुस्लिम बचे? जेहाद जारी रहे बल्कि उसके बाद भी? मुस्लिम बनाम मुस्लिम (फिरका वार) बे शक. अल्लाह, उसका रसूल और कुरान अगर बर हक हैं तो उसका फ़रमान उस से जुदा नहीं हो सकता. सदियों बाद तालिबान, अलकायदा जैशे मुहम्मद जैसी इस की बर हक अलामतें क़ाएम हो रही हैं, तो इस की मौत भी बर हक है. इसलाम का यह मज्मूम बर हक, वक़्त आ गया है कि ना हक में बदल जाय.
" लोग आप से शराब और कुमार (जुवा) के निस्बत दर्याफ़्त करते हैं, आप फरमा दीजिए कि दोनों में गुनाह की बड़ी बडी बातें भी हें और लोगों को फायदे भी हैं और गुनाह की बातें उनके फायदों से ज़्यादा बढी हुई हैं"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २१९)
बन्दाए हकीर मुहम्मद का रुतबा चापलूस इस्लामी कलम कारों ने इतना बढा दिया है कि कायनातों का मालिक उसको आप जनाब कह कर मुखातिब करता है. यह शर्म की बात है. अल्लाह में बिराजमान मुहम्मद मुज़ब्ज़ब बातें करते हैं जो हाँ में भी है और न में भी. मौनाओं को फतवा बांटने की गुंजाइश इसी किस्म की कुरानी आयतें फराहम करती हैं जो जुवा खेलना या न खेलना शराब पीना या न पीना दोनों बाते जाएज़ ठहरती हैं. पता नहीं ये उस वक़्त की बात है जब शराब हलाल थी और वह दो घूट पीए रहे हों. वैसे भी शराब कहीं किसी मज़हब मे हराम नहीं, ईसा तो चौबीसों घंटे tun रहते. खुद इस्लाम में मौत तक सब्र से कम लो ऊपर धरी है शराबन तहूरा. हाँ जुवा खेलना किसी भी हालत में फायदे मंद नही खिलवाना अलबत्ता फायदे मंद है. अल्लाह नासमझ है.
ज़हरीलi आयत
" निकाह मत करो काफिर औरतों के साथ जब तक कि वह मुसलमान न हो जाएँ और मुस्लमान चाहे लौंडी क्यूं न हो वह हजार दर्जा बेहतर है काफिर औरत से, गो वह तुम को अच्छी मालूम हो और औरतों को काफिर मर्दों के निकाह में मत दो, जब तक की वह मुसलमान न हो जाए, इस से बेहतर मुस्लमान गुलाम है"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत 221)
हमारे मुल्क में फिरका परस्ती का जो माहौल बन गया है उसको देखते हुए दोनों क़ौमों को ज़हरीले फ़रमान की डट कर खिलाफ वर्जी करना चाहिए. हिदुस्तान में आपसी नफ़रत दूर करने की यही एक सूरत है कि दोनों फिरके आपस में शादी ब्याह करें ताकि नई नस्लें इस झगडे का खात्मा कर सकें.
कितनी झूटी बात है - - - मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना.
हम देखते हैं कि कुरआन की हर दूसरी आयत नफ़रत और बैर सिखला रही है.
" और लोग आप से हैज़ (मासिक-धर्म) का हुक्म पूछते हैं, आप फरमा दीजिए की गन्दी चीज़ है, तो हैज़ में तुम ओरतों से अलाह्दा रहा करो और इनसे कुर्बत मत किया करो, जब तक की वह पाक न हो जाएँ"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२२)
देखिए कि अल्लाह कहाँ था, कहाँ आ गया? कौमी मसाइल समझा रहा था कि हैज़ (मासिक धर्म)की गन्दगी में घुस गया. कुरआन में देखेंगे यह अल्लाह की बकसरत आदत है ऐसे बेहूदा सवाल भी कुरआन ने मुहम्मद के हवाले किए हैं. हदीसें भी इसी क़िस्म की गलीज़ बातों से भरी पडी हैं. हैज़, उचलता हुवा पानी, तुर्श और शीरीं दरयाओं का मिलन, मनी, खून का लोथडा और दाखिल ओ खुरूज कि हिकमत से लबरेज़ अल्लाह की बातें जिसको मुसलमान निजामे हयात कहते हैं. अफ़सोस कि यही गंदगी इबारतें नमाजों में पढाई जाती है.
* औरतों के हुकूक का ढोल पीटने वाला इसलाम क्या औरत को इंसान भी मानता है? या मर्दों के मुकाबले में उसकी क्या औकात है, आधी? चौथाई? या कोई मॉल ओ मता, जायदाद और शय ? इस्लामी या कुरानी शरा और कानून ज्यादा तर कबीलाई जेहालत के तहत हैं. इन्हें जदीद रौशनी की सख्त ज़रुरत है ताकि औरतें ज़ुल्म ओ सितम से नजात पा सकें. इनकी कुरानी जिल्लत का एक नमूना देखें - - -
" तुम्हारी बीवियां तुम्हारी खेतियाँ हैं, सो अपनी खेतियों में जिस तरफ से होकर चाहो जाओ, और आइन्दा के लिए अपने लिए कुछ करते रहो और यकीन रक्खो कि तुम अल्लाह के सामने पेश होने वाले हो. और ऐसे ईमान वालों को खुश खबरी सुना दो"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२३)
तुम्हारी बीवियां तुम्हारी खेतियाँ हैं, सो अपनी खेतियों में जिस तरफ से होकर चाहो जाओ, अल्लाह बे शर्मी पर उतर आया है तो बात साफ़ करना पड़ रही है कि यायूदियों में ऐसा भरम था कि औरत को औंधा कर जिमा (सम्भोग) करने में तानासुल (लिंग) योनि के बजाय बहक जाता है और नतीजे में बच्चा भेंगा पैदा होता है. इस लिए सीधा लिटा कर जिमा करना चाहिए. मुहम्मद इस यहूदी अकीदत को खारिज करते हैं और अल्लाह के मार्फ़त यह जिंसी आयत नाज़िल करते हैं कि औरत का पूरा जिस्म मानिन्द खेत है जैसे चाहो जोतो बोवो.
* मुसलमानों में अवाम से ले कर बडे बड़े मौलाना तक कसमें बहुत खाते हैं. खुद अल्लाह कुरान में बिला वजे कसमे खाता दिखाई देता है. अल्लाह कहता है वह तुम को कभी नहीं पकडेगा तुम्हारी उस बेहूदा कसमों पर जो तुम रवा रवी में खा लेते हो मगर हाँ जिसे दिल से खा लेते हो, इस पर जवाब तलबी होगी (इसे इरादी कसमें भी कहा गया है) फिर भी फ़िक्र की बात नहीं, वह गफूर रुर रहीम है. इस सिलसिले में नीचे दोनों आयतें हैं आयत २२६ के मुताबिक औरत से चार माह तक जिंसी राबता न रखने की अगर क़सम खा लो और उसपर कायम रहो तो तलाक यक लख्त फैसल होगा और इस बीच अगर मन बदल जाए या जिंसी बे क़रारी में वस्ल की नोबत आ जाए तो अल्लाह इस क़सम की जवाब तलबी नहीं करेगा. ये आयत का मुसबत पहलू है.
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२६ )
" अल्लाह ताला वारिद गीर न फरमाएगा तुम्हारी बेहूदा कसमों पर लेकिन वारिद गीर फरमाएगा इस पर जिस में तुम्हारी दिलों ने इरादा किया था और अल्लाह ताला गफूरुर रहीम है" (सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत 225)
" जो लोग क़सम खा बैठे हैं अपनी बीवियों से, उन को चार महीने की मोहलत है, सो अगर ये लोग रुजू कर लें तब तो अल्लाह ताला मुआफ कर देंगे और अगर छोड़ ही देने का पक्का इरादा कर लिया है तो अल्लाह ताला जानने और सुनने वाले हैं."
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२७)
मुस्लिम समाज में औरतें हमेशा पामाल रही हैं आज भी ज़ुल्म का शिकार हैं. मुश्तरका माहोल के तुफैल में कहीं कहीं इनको राहत मिली हुई है जहाँ तालीम ने अपनी बरकत बख्शी है. देखिए तलाक़ के कुछ इस तरह गैर वाज़ह फ़रमाने मुहम्मदी - - -
" तलाक़ दी हुई औरतें रोक रखें अपने आप को तीन हैज़ तक और इन औरतों को यह बात हलाल नहीं कि अल्लाह ने इन के रहेम में जो पैदा किया हो उसे पोशीदा रखें और औरतों के शौहर उन्हें फिर लौटा लेने का हक रखते हैं, बशर्ते ये की ये इस्लाह का क़स्द रखते हों. और औरतों के भी हुकूक हैं जव कि मिस्ल उन ही के हुकूक के हैं जो उन औरतों पर है, काएदे के मुवाफिक और मर्दों का औरतों के मुकाबले कुछ दर्जा बढा हुवा है."
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२८)
औरतों के हुकूक आयत में अल्लाह ने क्या दिया है ? अगर कुछ समझ में आए तो हमें भी समझाना.
" दो बार तलाक़ देने के बाद भी निकाह क़ायम रहता है मगर तीसरी बार तलाक़ देने के बाद तलाक़ मुकम्मल हो जाती है. और औरत से राबता कायम करना हराम हो जाता है, उस वक़्त तक कि औरत का किसी दूसरे मर्द से हलाला न हो जाए."
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२९-३०)

हरामा

मुसलामानों में रायज रुस्वाए ज़माना नाजेब्गी हलाला जिसको दर असल हरामा कहना मुनासिब होगा, वह तलाक़ दी हुई अपनी बीवी को दोबारा अपनाने का एक शर्म नाक तरीका है जिस के तहेत मत्लूका को किसी दूसरे मर्द के साथ निकाह करना होगा और उसके साथ हम बिस्तारी की शर्त लागू होगी फिर वह तलाक़ देगा, बाद इद्दत ख़त्म औरत का तिबारा निकाह अपने पहले शौहर के साथ होगा, तब जा कर दोनों इस्लामी दागे बे गैरती को ढोते हुए तमाम जिंदगी गुज़ारेंगे. अक्सर ऐसा भी होता है कि टेम्प्रेरी शौहर औरत को तलाक़ ही नहीं देता और वह नई मुसीबत में फंस जाती है, उधर शौहर ठगा सा रह जाता है. ज़रा तसव्वुर करें कि मामूली सी बात का इतना बड़ा बतंगड़, दो जिंदगियां और उनके मासूम बच्चे ताउम्र रुसवाई का बोझ ढोते रहें.
मुहम्मदी अल्लाह तलाक़ शुदा और बेवाओं के लिए अधूरे और बे तुके फ़रमान जारी करता है. बच्चों को दूध पिलाने कि मुद्दत और शरायत पर भी देर तक एलान करता है जो कि गैर ज़रूरी लगते हैं. एक तवील ला हासिल गुफ्तुगू जो कुरआन में बार बार दोहराई गई है जिस को इल्म का खज़ाना रखने वाले आलिम अपनी तकरीर में हवाला देते हैं कि अल्लाह ने यह बात फलां फलां सूरतों की फलां फलां आयत में फरमाई है, दर असल वह उम्मी मुहम्मद कि बड़ बड़ है जो बार बार कुरआन का पेट भरने के लिए आती है, और आलिमों का पेट इन आयातों कि जेहालत से भारती है.
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २३१-२४२)
अल्लाह औरतों के जिंसी और अजदवाजी मसलों की डाल से फुधक कर अफ़साना निगारी की टहनी पर आ बैठता है बद ज़ायका एक किस्सा पढ़ कर, आप भी अपने मुंह का ज़ायका बिगादिए - - -
" तुझको उन लोगों का क़िस्सा तहकीक़ नहीं हुवा जो अपने घरों से निकल गए थे और वह लोग हजारो ही थे, मौत से बचने के लिए. सो अल्लाह ने उन के लिए फ़रमाया कि मर जाओ, फिर उन को जला दिया. बे शक अल्लाह ताला बड़े फज़ल करने वाले हैं लोगों पर मगर अक्सर लोग शुक्र नहीं करते.". (सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २४३)
लीजिए अफ़साना तमाम .क्या फ़ज़ले इलाही? उस जालिम अल्लाह का यही ही जिस ने अपने बन्दों को बे यारो मददगार करके जला दिया ? ये मुहम्मद कि ज़लिमाना फ़ितरत की लाशुऊरी अक्कासी ही है जिसको वह निहायत फूहड़ ढंड से बयान करते हैं.
मुसलमानों! खुदा के लिए जागो, वक्त की रफ़्तार के साथ खुद को जोडो, बहुत पीछे हुए जा रहे हो ,तुम ही न बचोगे तो इस्लाम का मतलब? यह इसलाम, यह इस्लामी अल्लाह, यह इस्लामी पयम्बर, सब एक बड़ी साजिश हैं, काश समझ सको. इसके धंधे बाज़ सब के सब तुम्हारा इस्तेसाल (शोषण) कर रहे है. ये जितने बड़े रुतबे वाले, इल्म वाले, शोहरत वाले, या दौलत वाले हैं, सब के सब कल्बे स्याह, बे ज़मीर, दरोग गो और सरापा झूट हैं. इसलाम तस्लीम शुदा गुलामी है, इस से नजात हासिल करने की हिम्मत जुटाओ, ईमान जीने की आज़ादी है, इसे समझो और मोमिम बनो.
तुम्हारा बेलौस
मोमिन मुतलक़

Tuesday, February 24, 2009

हर्फे-गलत (क़ुरआनी हकीक़तें)

सूरह अलबकर

अल्लाह कहता है - - -
" मगर जो लोग तौबा कर लें और इस्लाह कर लें तो ऐसे लोगों पर मैं मुतवज्जो हो जाता हूँ और मेरी तो बकसरत आदत हे तौबा कुबूल कर लेना और मेहरबानी करना."
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १६०)

अल्लाह की बकसरत आदत पर गौर करें. अल्लाह इंसानों की तरह ही अलामतों का आदी है. कुरान और हदीसों का गौर से मुतालिआ करें तो साफ साफ पाएँगे कि दोनों के मुसन्निफ़ एक हैं जो अल्लाह को कुदरत वाला नहीं बल्कि आदत वाला समझते हैं,
अल्ला मियां तौबा न करने वालों के हक में फरमाते हैं - - -

" अलबत्ता जो लोग ईमान न लाए और इसी हालत में मर गए तो इन पर लानत है, अल्लाह की, फरिश्तों की, और आदमियों की. उन पर अज़ाब हल्का न होने पाएगा."
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १६१ )

भला आदमियों की लानत कैसे हुई ? वही तो ईमान नहीं ला रहे. खैर अल्लाह मियां और रसूल मियां बोलते पहले हैं और सोंचते बाद में हैं. और इन के दल्लाल तो कभी सोचते ही नहीं.
* बहुत सी चाल घात की बातें इस के बाद की आयतों में अल्लाह ने बलाई हैं, अपनी नसीहतें और तम्बीहें भी मुस्लमान बच्चों को दी हैं. कुछ चीजें हराम करार दी हैं, बसूरत मजबूरी हलाल भी कर दी हैं. यह सब परहेज़, हराम, हलाल और मकरूह क़ब्ले इसलाम भी था जिस को भोले भाले मुस्लमान इसलाम की देन मानते हैं.
कहता है - - -

" अल्लाह ताला ने तुम पर हराम किया है सिर्फ़ मुरदार और खून को और खिंजीर के गोश्त को और ऐसे जानवर को जो गैर अल्लाह के नाम से ज़द किए गए हों. फिर भी जो शख्स बेताब हो जावे, बशर्ते ये कि न तालिबे लज्ज़त हो न तजाउज़ करने वाला हो, कुछ गुनाह नहीं होता. वाकई अल्लाह ताला हैं बड़े गफूर्रुर रहीम"
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १७३)

कुरान में कायदा कानून ज्यादा तर अधूरे और मुज़बज़ब हैं, इसी लिए मुस्लिम अवाम हमेशा आलिमों से फतवे माँगा करती है. मरहूम की वसीयत के मुताबिक कुल मॉल को हिस्से के पैमाइश या आने के हिसाब से बांटा गया है मगर रूपया कितने आने का है, साफ नहीं हो पाता, हिस्सों का कुला क्या है? वसीयत चार आदमी मिल कर बदल भी सकते हैं, फिर क्या रह जाती है मरने वाले की मर्ज़ी? कुरान यतीमों के हक का ढोल खूब पीटता है मगर यतीमों पर दोहरा ज़ुल्म देखिए कि अगर दादा की मौजूदगी में बाप की मौत हो जाय तो पोता अपनी विरासत से महरूम हो जाता है. क़स्सास और खून बहा के अजीबो गरीब कानून हैं. जान के बदले जान, मॉल के बदले मॉल, आँख के बदले आँख, हाथ के बदले हाथ, पैर के बदले पैर, ही नहीं, कुरानी कानून देखिए - - -

" ऐ ईमान वालो! तुम पर क़स्सास फ़र्ज़ किया जाता है मक़्तूलिन के बारे में, आज़ाद आदमी आज़ाद के एवाज़ और गुलाम, गुलाम के एवाज़ में और औरत औरत के एवाज़ में. हाँ, इस में जिसको फरीकैन की तरफ़ से कुछ मुआफी हो जाए तो माकूल तोर पर मतालबा करना और खूबी के तौर पर इसको पहुंचा देना यह तुम्हारे परवर दीगर की तरफ से तख्फ़ीफ़ तरह्हुम है जो इस बाद ताददी का मुरक्कब होगा तो बड़ा दर्द नाक अज़ाब होगा"

(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत१७९)

एक फिल्म आई थी पुकार जिसमे नूर जहां ने अनजाने में एक धोबी का तीर से खून कर दिया था. इस्लामी कानून के मुताबिक धोबन को बदले में नूर जहाँ के शौहर यानी जहाँगीर के खून करने का हक मिल गया था और बादशाह जहाँ गिर धोबन के तीर के सामने आँखें बंद करके खडा हो गया था. गौर करें यह कोई इंसाफ का मेराज नहीं था बल्कि एन ना इंसाफी थी. खता करे कोई और सज़ा पाए कोई. हम आप के गुलाम को कत्ल कर दें और आप मेरे गुलाम को, दोनों मुजरिम बचे रहे. वाह! अच्छा है मुजरिमों के लिए मुहम्मदी कानून.
सूरह की मंदर्जा ज़ेल आयतों में रोज़ों को फ़र्ज़ करते हुए बतलाया गया है कि कैसे कैसे किन किन हालत में इन की तलाफ़ी की जाए. यही बातें कुरानी हिकमत हैं जिसका राग ओलिमा बजाया करते हैं. मुसलमानों की यह दुन्या भाड़ में जा रही है जिसको मुसलमान समझ नहीं पा रहा है. यह दीन के ठेकेदार खैराती मदरसों से खैराती रिज़्क़ खा पी कर फारिग हुए हैं अब इनको मुफ्त इज्ज़त और शोहरत मिली है जिसको ये कभी ना जाने देंगे भले ही एक एक मुस्लमान ख़त्म हो जाए.
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १८४-१८७)
"तुम लोगों के वास्ते रोजे की शब अपनी बीवियों से मशगूल रहना हलाल कर दिया गया, क्यूँ कि वह तुम्हारे ओढ़ने बिछोने हैं और तुम उनके ओढ़ने बिछौने हो। अल्लाह को इस बात की ख़बर थी कि तुम खयानत के गुनाह में अपने आप को मुब्तिला कर रहे थे। खैर अल्लाह ने तुम पर इनायत फ़रमाई और तुम से गुनाह धोया - - -जिस ज़माने में तुम लोग एत्काफ़ वाले रहो मस्जिदों में ये खुदा वंदी जाब्ते हैं कि उन के नजदीक भी मत जाओ। इसी तरह अल्लाह ताला अपने एह्काम लोगों के वास्ते बयान फरमाया करते हैं इस उम्मीद पर की लोग परहेज़ रक्खें " (सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १८७)

आज के साइंस्तिफिक दौर में, यह हैं अल्लाह के एह्कम जिसकी पाबंदी मुल्ला क़ौम से करा रहे हैं. उसके बाद सरकार पर इल्जाम तराशी कि मुसलमानों के साथ भेद भाव। मुसलमान का असली दुश्मन इस्लाम है जो आलिम इस पर लादे हुए हैं।
" आप से लोग चांदों के हालत के बारे में तहकीक करते हैं, आप फरमा दीजिए कि वह एक आला ऐ शिनाख्त अवकात हैं लोगों के लिए और हज के लिए।
और इस में कोई फ़ज़िलत नहीं कि घरों में उस कि पुश्त की तरफ़ से आया करो। हाँ! लेकिन फ़ज़िलत ये है कि घरों में उन के दरवाजों से आओ।"

(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १८९)

मुहम्मद या उनके अल्लाह की मालूमात आमा और भौगोलिक ज्ञान मुलाहिज़ा हो, महीने के तीसों दिन निकलने वाले चाँद को अलग अलग तीस चाँद (चांदों) समझ रहे हैं। मुहम्मद तो खैर उम्मी थे मगर इन के फटीचर अल्लाह की पोल तो खुल ही जाती है जिस के पास मुब्लिग़ तीस अदद चाँद हर साइज़ के हैं जिसको वह तारीख के हिसाब से झलकाता है ।ओलीमा अल्लाह की ऐसी जिहालत को नाजायज़ हमल की तरह छुपाते हैं।
अल्लाह कहता है किसी के घर जाओ तो आगे के दरवाजे से, भला पिछवाडे से जाने की किसको ज़रूरत पड़ सकती है मुहम्मद साहब बिला वजेह की बात करते हैं।
"और तुम लड़ो अल्लाह की राह में उन लोगों के साथ जो तुम लोगों से लड़ने लगें, और हद से न निकलो, वाकई अल्लाह हद से निकलने वालों को पसंद नहीं करता और उनको क़त्ल करदो जहाँ उनको पाओ और उनको निकाल बाहर करदो, जहाँ से उन्हों ने निकलने पर तुम्हें मजबूर किया था. और शरारत क़त्ल से भी सख्त तर है - - - फिर अगर वह लोग बाज़ आ जाएँ तो अल्लाह ताला बख्श देंगे.और मेहरबानी फरमाएंगे और उन ललोगों के साथ इस हद तक लड़ो कि फ्सदे अकीदत न रहे और दिन अल्लाह का हो जाए."

(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १९०-१९२ )

मुहम्मद को कुछ ताक़त मिली है, वह मुहतात रवि के साथ इन्तेकाम पर उतारू हो गए हैं "शरारत क़त्ल से सख्त तर है" अल्लाह नबी से छींकने पर नाक काट लो जैसा फरमान जारी करा रहा है.
जैसे को तैसा, अल्लाह कहता है - - -

"सो जो तुम पर ज्यादती करे तो तुम भी उस पर ज्यादती करो जैसा उस ने तुम पर की है"
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १९४ )

क्या ये इंसानी अजमतें हो सकती हैं? ये कोई धर्म हो सकता है? ओलिमा डींगें मारा करते हैं कि इसलाम सब्रो इस्तेक्लाल का पैगाम देता है और मुहम्मद अमन के पैकर हैं मगर मुहम्मद इब्ने मरियम के उल्टे ही हैं.
" और जब हज में जाया करो तो खर्च ज़रूर ले लिया करो क्यों की सब से बड़ी बात खर्च में बचे रहना. और ऐ अक्ल वालो! मुझ से डरते रहो. तुम को इस में जरा गुनाह नहीं की हज में मुआश की तलाश करो- - -"
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १९८)
अल्लाह कहता है अक़्ल वालो मुझ से डरते रहो, ये बात अजीब है कि अल्लाह अक़्ल वालों को खास कर क्यं डराता है? बे वक़ूफ़ तो वैसे भी अल्लाह, शैतान, भूत, जिन्, परेत, से डरते रहते हैं मगर अहले होश से अक्सर अल्लाह डर के भागता है क्यों कि ये मतलाशी होते है सदाक़त के.
"सूरह में हज के तौर तरीकों का एक तवील सिलसिला है, जिसको मुस्लमान निजाम हयात कहता है."(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १९६-२००)

Friday, February 20, 2009

हर्फ़ ग़लत (Quraan)


सूरह - - - अल्बक्र (किस्त-२)
फतह मक्का के बाद अरब क़ौम अपनी इर्तेकाई उरूज को खो कर शिकस्त खुर्दगी पर गामज़न हो चुकी थी। जंगी लदान का इस्लामी हरबा उस पर इस क़दर पुर ज़ोर और इतने तवील अरसे तक रहा कि इसे दम लेने की फुर्सत न मिल सकी। इस्लामी ख़ुद साख्ता उरूज का ज़वाल उस पर इस कद्र ग़ालिब हुवा की इस का ताबनाक माज़ी कुफ़्र का मज़्मूम सिम्बल बन कर रह गया। योरोप के शाने बशाने बल्कि योरोप से दो क़दम आगे चलने वाली अरब क़ौम, योरोप के आगे ab घुटने टेके हुए है।
अल्लाह कहता है - - -

"अल्लाह काफिरों को चैलेंज करता है कि कुरान की एक आयत जैसी आयत कोई बना कर दिखलाए (ये मुहम्मदके अन्दर का शाएर बोलता है ) और लोग दर्जनों आयतें गढ़ गढ़ कर उन के सामने रख देते हैं मगर उनका चैलेंजकायम रहता है की क़यामत तक नहीं बना सकते।" (सूरह अलबकर २ पहला पारा , आयत २३)
मुहम्मद का ये दावा कुरआन में कई बार दोहराया जाता है।
उसके बाद कहता है - - -
" तो फिर बचते रहो दोज़ख से जिसका ईंधन आदमी और पत्थर हैं, तैयार हुई रक्खी है, काफिरों के लिए" (सूरहअलबकर २ पहला पारा , आयत २४ )
कभी इंसान और जिन्नात दोज़ख का ईधन हुवा करते हैं और अब बे जान, बे आमाल पत्थरों पर दोज़ख का अज़ाब नाज़िल होगा। अल्लाह को भूखी दोज़ख का पेट नहीं भरना बल्कि मुहम्मद को कुरआन का पेट भरना है अपनी बकवासों से और इस से मंसूब ओलिमा, आएमा, मुबल्लिग धंधे बाजों को अपनी अय्याराना तकरीरों और तहरीरों से. भोले भाले मुस्लिम अवाम को काश हकीक़त का एहसास हो और वक्त आवाज़ सुनाई दे.
*कुरआन में मुहम्मद ने कुछ मिसालें अपनी इल्मी या बेईल्मी सलाहियत का मुजाहेरा करते हुए गढ़ी हैं और तारीफ में अपनी पीठ भी ठोंकी है। हालां कि सब की सब बे जान और फुस फुसी हैं,चंद एक पेश हैं---
" हाँ! वाक़ई अल्लाह ताला तो नहीं शर्माते इस बात से कि बयान करें कोई मिसाल,ख्वाह वह मछ्छर की हो, ख्वाह इस से भी बढ़ी हुई हो. जो ईमान लाए हुए हैं ,ख्वाह कुछ भी हो यकीन कर लेंगे कि बे शक ये मिसालें बहुत मौके की हैं और रह गए जो लोग काफिर हो चुके हैं, कहते रहेंगे कि वह कौन सा मतलब होगा जिस का क़स्द किया होगा अल्लाह ने, इस हकीर मिसाल से गुमराह करते हैं. अल्लाह ताला इस मिसाल से बहुतों को और हिदायत देते हैं." (सूरह अलबकर २ पहला पारा , आयत 2६ )

हवा का बुत अल्लाह दोज़ख का पेट पत्थरों से भर रहा है, ख़ुद साख्ता उम्मी मुहम्मद कुरआन का पेट इन मोह्मिल आयातों से भर रहे हैं, मुस्लमान हवाई बुत अपने अल्लाह का पेट इन बकवासी आयातों की इबादत से भर रहा है, आलिमाने दीन और मुतल्लिक़ीन दीन बराए ज़रीआ मआश अपना पेट इस्लाम से भर रहे है, नव जवानों ने जेहादी राह पकड़ी है, कमजोरों को इस्लाम ने खैराती रिज़्क़ बख्शा है। ये है इस्लामी निजाम का अंजाम. मुफक्किर को इस में जिंदा रहने की कोई राह नहीं.

* " अल्लाह फरिश्तों के सामने ये एलान करता है कि हम ज़मीन पर अपना एक नाएब इंसान की शक्ल में बनाएंगे। फ़रिश्ते इस पर एहतेजाज करते हैं कि तू ज़मीन पर फ़सादियों को पैदा करेगा जब कि हम लोग तेरी बंदगी के लिए काफी हैं। मगर अल्लाह नहीं मानता और एक बा इल्म आदम को बना कर, बे इल्म फरिश्तों की जबान बंद कर देता है। अल्लाह के हुक्म से तमाम फ़रिश्ते आदम के सामने सजदे में गिर जाते हैं, सिवाए इब्लीस के। इब्लीस मरदूद, माजूल और मातूब होता है। आदम और हव्वा जन्नत में अल्लाह की कुछ हिदायत के बाद आजाद रहने लगते हैं। हस्बे आदत अल्लाह बनी इस्राईल को काएल करता है की हमारी किताब कुरआन भी तुम्हारी ही किताबों की तरह है. इस के बाद क़यामत और आखरत की बातें करता है." (सूरह अलबकर २ पहला पारा ,आयत 30-43)
आदम और हव्वा की तौरेती कहानी को कुछ रद्दो बदल करके मुहम्मद ने कुरआन में कई बार दोहराया है। मज़े की बात ये है कि हर बार बात कुछ बदल जाती है कहते हैं न कि " दरोग आमोज रा याद दाश्त नदारद."
*क्या गज़ब है कहते हो और लोगों को नेक काम करने को (नेक काम करने से मुराद रसूल अल्लाह सल्लाह अलैहिःवसल्लम पर ईमान लाना) और अपनी ख़बर नहीं रखते, हालां कि तुम तिलावत करते हो किताब की, तो क्या तुम इतना भी नहीं समझते."
(सूरह अलबकर २ पहला पारा , आयत ४४ )

मुहम्मद की महफ़िल में हर किस्म के लोग हुवा करते थे. मजबूर इतने की उनके थूके हुए को मुंह पर मल लिया करते थे, खुददार और बा असर ऐसे की मुहम्मद के तमाम चाल घात को जानते हुए भी मसलहतन साथ निभाते थे. ऐसे ही कोई साहब हैं जो लोगों को नेक कामों की तलकीन करते हैं. मुहम्मद उनकी बातें सुन कर अन्गुश्त बदंदां होते हैं और मज़कूरा आयत नाज़िल करते हैं. इस आयत की पैरवी आम मुसलमान से लेकर खास तालिबान तक अच्छी तरह लाशऊरी तौर पर कर रहे हैं.
*" आदम और हव्वा की मन गढ़ंत कहानी के बाद मुहम्मद का अल्लाह बनी इस्राईल के सुने सुनाए किस्से पेश करता है. अधूरी जानकारी के बाएस अल्लाह इन का अस्ल बयान नहीं कर पाता. मगर बे सिर ओ पैर की तवील गुतुगू कर के तूल कलामी ज़रूर करता रहता है. तौरेत और मूसा के तवस्सुत से इस्लाम की तबलीग भी करता है और इन के असर से नव मुस्लिम को बचाने की कोशिश भी करता है. मुहम्मद की अधकचरी मालूमात की असलाह अगर कोई यहूदी अपने तारीखी पसे मंज़र में कर भी देता है तो मुहम्मदी अल्लाह उसको झूठा क़रार दे देता है कि तुम ने असलियत बदल डाली है. हम ब हैसियत अल्लाह इस बात के गवाह हैं कि हमारी बातें सच हैं. यानी झूठे के आगे सच्चा रोए. ऐसे मौके पर यहूदी आपस में बातें करते हैं, हम क्यों इन से उलझते हैं? और अपनी जानकारी इन्हें देते हैं. यह ग़ालिब लोग हैं, इनसे पार पाना मुश्किल है. अल्लाह कुछ इस अंदाज़ में बातें करता है - - - " एहसान मानो की तुमको मूसा ने अल्लाह के हुक्म से मिस्रयों से आजाद कराया, याद करो की वीराने में तुम्हें खाने के लिए बटेरें इफ़रात कर दी थीं और याद करो कि तुम भटक कर गोशाले की तरफ़ चले गए थे.* (सूरह अलबकर२ पहला पारा , आयत 47-93 )

* देखिए मुहम्मदी अल्लाह अपने प्यारे नबी से किस मुंसिफाना फ़रमान का एलान करवाता है - - -" "आप कहदीजिए (यहूदियों से) कि आलम आखिरत अगर तुम्हारे लिए ही फायदे मंद है तो अल्लाह के पास बिला शिरकते गैरे, मौत की तमन्ना करो, अगर तुम सच्चे हो. और वह कभी भी इस की तमन्ना नहीं करेंगे." (सूरह अलबकर २ पहलापारा , आयत 94)
ख़ुद साख्ता रसूल की इस पेश काश को क्या कहा जाए ? कम से कम ये मर्दों की बात तो नहीं हो सकती. कोई क़ौम अपने मुखालिफ के बहकावे में आकर ख़ुद कुशी की तमन्ना कर सकती है क्या? यही बात यहूदी कह सकते हैं कि अगर सिर्फ़ मुसलमान बख्शे जाएंगे तो वह मौत की तमन्ना क्यूं नहीं करते? ऐसी बातों पर ही अहले मक्का मुहम्मद को मजनू कहते थे. ऐसे मुकालमात का खालिक, किर्दगार ऐ खलक को बना कर मुसलमान अज ख़ुद ज़माने के सामने दिमागी दीवालिया हो जाता है.
और सुनें अल्लाह की गुफ्तुगू अल्लाह वाले और अपने ईमान को ताज़ा करें- - -
" सुलेमान के अहद में बज़ात ख़ुद सुलेमान ने कोई कुफ़्र नहीं किया लेकिन शयातीन कुफ्र करते थे. और आदमियों को भी जादू की तालीम दिया करते और उस जादू की भी जो उस वक्त फरिश्तों पर नाजिल किया गया था. शहर बाबुल में जिस का नम हारुत और मारूत, लोग इन से सेहर सीखते, मियां बीवी के बीच झगडा कराने के लिए. साहिर लोग किसी को ज़रर नहीं पहुँचा सकते जब तक कि अल्लाह का हुक्म न हो"
(सूरह अलबकर २ पहला पारा , आयत102)
गौर करें की आप नमाजों में क्या पढ़ते हैं. यह किसी अल्लाह का कुरआन है? या फिर किसी उम्मी की खुराफात. ऐसी इबारतें क्या वास्ते इबादत हो सकती हैं. यह अल्ला नहीं, मुल्ला आप से जादू टोना जैसा कुफ्र करा रहे हैं. जागिए. इनका दामन छोडिए.
कुरआन की करीब सौ खास खास आयतों का मुतलेआ हम आप को गोश गुजार करा चुके हैं, आप ने कहीं कोई काम की बात पाई ? आलावा जिहालत के. जिन आयात को हम ने नहीं छुवा, वह हाथ लगाने लायक थीं भी नहीं, यानी दीवाने की झक.

हर्फे-ग़लत (कुरान)

सुरह अल्बक्र (तीसरी किस्त)

अल्लाह की तरफ़ से भेजी गई कच्ची वातों पर जब लोग उंगली उठाते हैं और मुहम्मद को अपनी गलती का एहसास होता है तो उस आयत या पूरी की पूरी सूरह अल्लाह से मौकूफ (अमान्य) करा देते हैं। ये भी उनका एक हरबा होता. अल्लाह न हुवा एक आम आदमी हुवा जिस से गलती होती रहती है, उस पर ये कि उस को इस का हक है। बड़ी जोरदारी के साथ अल्लाह अपनी कुदरत की दावेदारी पेश करते हुए अपनी ताक़त का मजाहरा करता है कि वह कुरानी आयातों में हेरा-फेरी कर सकता है, इसकी वह कुदरत रखता है, कल वह ये भी कह सकता है कि वह झूट बोल सकता है, चोरी, चकारी, बे ईमानी जैसे काम भी करने की कुदरत रखता है।
" हम किसी आयत का हुक्म मौकूफ़ कर देते हैं या उस आयत को फ़रामोश कर देते हैं तो उस आयत से बेहतर या उस आयत के ही मिस्ल ले आते हैं। क्या तुझ को मालूम नहीं कि अल्लाह ताला ऐसे हैं कि इन्हीं कि सल्तनत आसमानों और ज़मीन की है और ये भी समझ लो कि तुम्हारे हक ताला के सिवा कोई यारो मदद गार नहीं। "


मुहम्मद इस कदर ताकत वर अल्लाह के ज़मीनी कमांडर बन्ने की आरजू रखते थे।
" अल्लाह ताला जब किसी काम को करना चाहता है तो इस काम के निस्बत इतना कह देता है कि कुन यानी हो जा और वह फाया कून याने हो जाता है "
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत 117)
विद्योत्मा से शिकस्त खाकर मुल्क के चार चोटी के क़ाबिल ज्ञानी पंडित वापस आ रहे थे , रास्ते में देखा एक मूरख (कालिदास) पेड़ पर चढा उसी डाल को काट रहा था जिस पर वह सवार था, उन लोगों ने उसे उतार कर उससे पूछा राज कुमारी से शादी करेगा? प्रस्ताव पाकर मूरख बहुत खुश हुवा। पंडितों ने उसको समझया की तुझको राज कुमारी के सामने जाकर बैठना है, उसकी बात का जवाब इशारे में देना है, जो भी चाहे इशारा कर दे। मूरख विद्योत्मा के सामने सजा धजा के पेश किया गया , विद्योत्मा से कहा गया महाराज का मौन है, जो बात चाहे संकेत में करें. राज कुमारी ने एक उंगली उठाई, जवाब में मूरख ने दो उँगलियाँ उठाईं. बहस पंडितों ने किया और विद्योत्मा हार गई। दर अस्ल एक उंगली से विद्योत्मा का मतलब एक परमात्मा था जिसे मूरख ने समझा वह उसकी एक आँख फोड़ देने को कह रही है. जवाबन उसने दो उंगली उठाई कि जवाब में मूरख ने राज कुमारी कि दोनों आखें फोड़ देने कि बात कही थी. जिसको पंडितों ने आत्मा और परमात्मा साबित किया.
कुन फाया कून के इस मूर्ख काली दास की पकड़ पैगम्बरी फार्मूला है जिस पर मुस्लमान क़ौम ईमान रक्खे हुए है। ये दीनी ओलिमा कलीदास मूरख के पंडित हैं जो उसके आँख फोड़ने के इशारे को ही मिल्लत को पढा रहे है, दुन्या और उसकी हर शै कैसे वजूद में आई अल्लाह ने कुन फया कून कहा और सब हो गया. तालीम, तहकीक और इर्तेकई मनाजिल की कोई अहमियत और ज़रूरत नहीं. डर्बिन ने सब बकवास बकी है. सारे तजरबे गाह इनके आगे फ़ैल. उम्मी की उम्मत उम्मी ही रहेगी, इसके पंडे मुफ्त खोरी करते रहेंगे उम्मत को दो+दो+पॉँच पढाते रहेंगे . यही मुसलामानों की किस्मत है।
अल्लाह कुन फया कून के जादू से हर काम तो कर सकता है मगर पिद्दी भर शहर मक्का के काफिरों को इस्लाम की घुट्टी नहीं पिला सकता। ये काएनात जिसे आप देख रहे हैं करोरो अरबो सालों के इर्तेकाई रद्दे अमल का नतीजा है, किसी के कुन फया कून कहने से नहीं बनी ।
* अज ख़ुद ना ख्वान्दा और उम्मी मुहम्मद अपने से ज्यादा ज़हीनो को जाहिल के लक़ब से नवाजते हैं जिसकी वकालत आलिमान इस्लाम आज तक आखें बंद करके अपनी रोटियाँ चलाने के लिए करते चले आ रहे हैं - - -
" कुछ जाहिल तो यूँ कहते हैं कि हम से क्यों नहीं कलाम फ़रमाते अल्लाह ताला? या हमारे पास कोई और दलील आ जाए। इसी तरह वह भी कहते आए हैं जो इन से पहले गुज़रे हैं, इन सब के कुलूब यकसाँ हैं, हम ने तो बहुत सी दलीलें साफ साफ बयाँ कर दी हैं"
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत 118)
* नाम निहाद अल्लाह के ख़ुद साख्ता रसूल ढाई तीन हजार साल क्बल पैदा होने वाले बाबा इब्राहीम से अपने लिए दुआ मंगवाते हैं, उस वक़त जब वह काबा की दीवार उठा रहे होते हैं- - -
" और जब उठा रहे थे इब्राहीम दीवारें खानाए काबा की और इस्माईल भी--- (दुआ गो थे) ऐ हमारे परवर दिगार हम से कुबूल फरमाइए,बिला शुबहा आप खूब सुनने वाले हैं, जानने वाले हैं, ऐ हमारे परवर दिगार! हमें और मती बना लीजिए और हमारी औलादों में भी एक ऐसी जमात पैदा कीजिए जो आप की मती हो। और हम को हमारे हज के अहकाम बता दिजिए और हमारे हाल पर तवज्जे रखिए. फिल हकीक़त आप ही हैं तवज्जे फरमाने वाले मेहरबानी करने वाले. ऐ हमारे परवर दिगार! और इस जमात से इन्हीं में के एक ऐसे पैगम्बर भी मुकर्रर कीजिए जो इन लोगों को आप की आयत पढ़ पढ़ कर सुनाया करें और आसमानी किताब की खुश फ़हमी दिया करें और इन को पाक करें - - - और मिल्लते इब्राहिमी से तो वही रू गर्दानी करेगा जो अपनी आप में अहमक होगा.और हम ने इन को दुन्या में मुन्तखिब किया और वह आखिरत में बड़े लायक लोगों में शुमार किए जाते हैं"
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत 127-130)

इस तरह मुहम्मद एक चाल चलते हुए अपने चलाए हुए दीन इस्लाम को यहूदियों, ईसाइयों, और मुसलमानों के मुश्तरका पूर्वज बाबा इब्राहीम का दीन बनाने की कोशिश कर रहे हैं॥गोया साँप और सीढ़ी का खेल खेल कर ख़ुद मूरिसे आला के गद्दी नशीन बन जाते हैं। इब्राहिम बशरी तारीख में एक मील का पत्थर है। इनकी जीवनी ऐबो हुनर के साथ तारीख इंसानी में पहली दास्तान रखती है। इसी लिए इनको फादर अब्राहम का मुकाम हासिल है। उसको लेकर मुहम्मद ने आलमी राय को गुराह करने की कोशिश की ।

सारा, बीवी के अलावा इब्राहीम की एक लौंडी हाजरा (हैगर) थी जिसका बेटा इस्माईल था जिसकी नस्लों से कुरैश और ख़ुद हज़रत हैं। साथ ही बतलाता चलूं कि इब्राहीम ने कुर्बानी अपने छोटे बेटे इसहाक इब्न सारा की दी थी, इस्माईल की नहीं जिसको मुहम्मद के कुरआन ने अल्लाह की गवाही में बदल दिया। आगे हदीस में देखिएगा कि मुहम्मद ने बाबा इब्राहीम को भी अपने सामने बौना कर दिया है।

मुझे कुरानी इबारतों को सोंच सोंच कर हैरत होत्ती है कि क्या आज भी दुन्या में इतने कूढ़ मग्ज़ बाक़ी हैं जो इसे समझ ही नहीं पा रहे हैं? या इस्लामी शातिर इतने मज़बूत हैं कि जो इन पर गालिग़ हैं।कुरआन में पोशीदा धांधली तो मुट्ठी भर लोगों के लिए थी. रात के अंधेरे में सेंध लगाती थी, आज तो दिन दहाड़े डाका डाल रही है. तालीम की रौशनी में ऐसी मुहम्मदी जेहालत पर मासूम बच्चा भी एक बार सुन कर मानने से हिचकिचाए.

" जिस वक्त याकूब का आखिरी वक्त आया अपने बेटों से पूछा, तुम लोग मेरे मरने के बाद किस चीज़ की परस्तिश करोगे? बेटों ने जवाब दिया हम लोग उसी की परस्तिश करेंगे जिस की आप, आप के बुजुर्ग, इब्राहीम, इस्माईल, इसहाक परस्तिश करते आऐ हैं, यानी वही माबूद जो वाद्हू ला शरीक है और हम उसी की एताअत पर रहेंगे "
(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत १३२-133)

इस क़िस्म की आयतें कुरआन में वाकेआत पर आधारित बहुतेरी है जो सभी तौरेत की चोरी हैं मगर सब झूट का लबादा, हाँ जड़ ज़रूर तौरेत में छिपी है। इस वाकए की जड़ है कि यूसफ़ के ख्वाब के मुताबिक जो कि उसने देखा था कि एक दिन सूरज और चाँद उसके सामने सर झुकाए खड़े होंगे और ग्यारा सितारे उसके सामने सजदे में पड़े होंगे, जो कि पूरा हुवा, जब युफुफ़ मिस्र का बेताज बादशाह हुवा तो उसका बाप गरीब याकूब और याकूब की जोरू उसके सामने सर झुके खड़े थे और उसके तमाम सौतेले भाई शर्मिदा सजदे में पड़े थे. याकूब के सामने दीन का कोई मसला ही न था मसला तो ग्यारा औलादों की रोटी का था. मुहम्मद का यह जेहनी शगूफा कहीं नहीं मिलेगा, यूसुफ़ की दास्तान तारीख में साफ़ साफ़ है.

" आप फरमा दीजिए कि तुम लोग हम से हुज्जत किए जाते हो अल्लाह ताला के बारे में, हालां कि वह हमारा और तुम्हारा रब है। हम को हमारा क्या हुवा मिलेगा और तुम को तुम्हारा किया हुवा, और हम ने हक ताला के लिए अपने को खालिस कर रक्खा है. क्या कहे जाते हो कि इब्राहीम और इस्माईल और इसहाक और याकूब और औलाद याकूब यहूद या नसारा थे, कह दीजिए तुम ज़्यादा वाकिफ हो या हक ताला और इस शख्स से ज्यादा जालिम कौन होगा जो ऐसे शख्स का इख्फा करे जो इस के पास मिन जानिब अल्लाह पहंची हो और अल्लाह तुहारे किए से बे खबर नहीं "(सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत १३९-140)

इस में आयत १४० बहुत खास है। पूरा कुरआन इसी की मदार पर घूमता है जिस से मुस्लमान गुमराह होते हैं तुम ज़्यादा वाकिफ हो या हक ताला कौमों की तवारीख कोई सच्चाई नहीं रखती, अल्लाह की गवाही के सामने. इसको न मानने वाले जालिम होते हैं, और जालिमों से अल्लाह निपटेगा.

मुसलमानों! पूरा यकीन कर सकते हो की तवारीख अक़वाम के आगे कुरानी अल्लाह की गवाही झूटी है। मुहम्मद से पहले इस्लाम था ही नहीं तो इब्राहीम और उनकी नस्लें मुस्लमान कैसे हो सकती हैं? ये सब मजनू बने मुहम्मद की गहरी चालें हैं.

" जिस जगह से भी आप बाहर जाएं तो अपना चेहरा काबा की तरफ़ रक्खा करें और ये बिल्कुल हक है और अल्लाह तुम्हारे किए हुए कामो से असला बे ख़बर नहीं है और तुम लोग जहाँ कहीं मौजूद हो अपना चेहरा खानाए काबा की तरफ़ रक्खो ताकि लोगों को तुम्हारे मुकाबले में गुफ्तुगू न रहे। मुझ से डरते रहो।" (सूरह अल्बक्र २ पहला पारा आयत १४९- १५० )

इस रसूली फरमान पर मुस्कुरइए, तसव्वुर में अमल करिए, भरी महफिल में बेवकूफी हो जाए तो कहकहा लगाइए। भेड़ बकरियों के लिए अल्लाह का यह फरमान मुनासिब ही है.

हुवा यूँ था की मुहम्मद ने मक्का से भाग कर जब मदीने में पनाह ली थी तो नमाजों में सजदे के लिए रुख करार पाया था बैतुल मुक़द्दस, जिस को किबलाए अव्वल भी कहा जाता है, यह फ़ैसला एक मसलेहत के तहत भी था, जिसे वक्त आने पर सजदे का रुख बदल कर काबा कर दिया गया ,जो कि मुहम्मद की आबाई इबादत गाह थी। इस तब्दीली से अहले मदीना में बडी चे-में गोइयाँ होने लगीं जिसको मुहम्मद ने सख्ती के साथ कुचल दिया, इतना ही नहीं, मंदर्जा बाला हुक्मे रब्बानी भी जारी कर दिया। (सूरह अल्बक्र २ पहला पारा {सयाकूल} आयत १४९- १५० )


























Wednesday, February 18, 2009

जवाबात (एतराजों के)

हम आभार व्यक्त करते है उन सभों का जिन्हों ईमानहु को सराहा. मैं उनका भी आभारी हूँ जिन्होंने इसे बुरा भला कह कर मुझे ऊर्जा बख्शी. खास कर एक वेब दुन्या का.

एतराजात के जवाब - - -इस्लामिक वेब दुन्या के कई एतराज़ आए हैं, नाम से ही लगता है की इनका भी ज़रीअया मआश इस्लाम ही है ओलिमा की तरह. इन्हों ने मेरी तहरीक की रूह को नहीं देखा, न समझा बल्कि खारजी पैकर पर ही नज़र डाली कहते हैं "लेखनी का स्तर हल्का है "किताब में लिखी बातों के बारे में या उसका जवाब देने के बजाए किताब की खारजी बातें, उसकी जिल्द साज़ी पर तन्क़ीद कर रहे हैं. इन की वेब देखी, ऐ आर रहमान पर इतर रहे हैं जो ख़ुद इनके अंदर घुस कर इनकी इसलाह कर रहा है, वंदे मातरम् कहके.

मैं ने तर्जुमा मशहूर मारूफ़ इस्लामी विद्वान् मौलाना शौकत अली थानवी का अपनी किताब "हर्फे-ग़लत" में लिया है जो उर्दू और हिदी दुन्या में लगभग ९०% पढ़ी जाती है, जिसको हजरत उल जुलूल कहते हैं.

फकीर मोहम्मद साहब कहते हैं की "तुम्हारे जैसे लोग इस्लाम की तौहीन हैं" जवाब में अर्ज़ है मियां की "आलम इन्सानिय्त्त पर इस्लाम एक दाग है." ईमानाहू के मजामीन पर ईमान लाइए .

लखनऊ से एक नौ जवान सलीम मियां की इत्तेला में लाना चाहता हूँ की मैं अपनी दो किताबें ब्लोग के तसव्वुत से मंज़र आम पर ला रहा हूँ. पहली हर्फे-ग़लत यानी कुरआन और दूसरी हदीसी हादसे यानी हदीसें. ल लखनऊ को मेरा सलाम कहिगा.

Monday, February 16, 2009

हदीसी हादसात

मैं एक मोमिन हूँ और मेरा दीन है ईमान दारी. दीन एक दरख्त है, ईमान इस का फूल है, और मोमिन इस का फल. इसी फल के बीज से फिर द्ररख्त का वजूद फूटता है, दरख्त में फूल अपनी महक के साथ फिर फूलते हैं और फिर इन्हीं फूलों पर आते हैं दीन के फल. दरख्त, फूल और फल का सिलसिला यूँ ही चलता रहता है. ज़मीन पर ईमान का नक्श ऐ ज़हूर, पैकरे इंसानी है और इंसानी क़दरों की निचोड़ है ईमान. ईमानी अज़मत का निशान है दीन. दीन जो इंसानियत के वजूद से रिफ़ाइन होकर इंसानों के लिए मकनातैशी हो जाता है. कहते हैं फ़लां शख्स बड़ा दीनदार है, यानी वह इंसानी क़दरों के करीब तर है. इसी लिए लोग उसकी तरफ़ खिंचते हैं. यह दीन, जिसकी सिफ़त दयानत है, मोमिन की सिफ़त ईमान है, अम्न, अमीन, और इंसान सब एक ही शजरे के कुदरती फूल और फल हैं. इन पर गौर करने की ज़रूरत है.
अफ़सोस कि दीन की जगह मज़हब ने हत्या लिया है जिसका दीन से दूर दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है. नमाज़, रोजा, हज, ज़कात, वजू, रुकू, सजदा, तहारत, नजासत, इबादत, जेहाद और तबलीग वगैरह मज़हबी कारस्तानियाँ हैं, दीन नहीं. दीन तो दिल से निकली हुई सच्चाई का बेचैन वलवला है. दीन धर्म कांटे का तोला गया सच्चा वज़न है, मान ली गई झूटी अकीदतें नहीं.
आदमी मफरूज़ा आदम से पहले ज़हीन तर जानवर का बच्चा हुवा करता था. मफरूज़ा आदम का वजूद हुवा आदमी जानवर से आदमी बना. वह जब मुहज्ज़ब हुवा, तोंर तरीका और तमाज़त उस में आई, इंसानी दर्द का एहसास जगा तो वह आदमी से इंसान बना. आदमी और इंसान का फर्क ग़ालिब के इस शेर से साफ होता है---------" बस की दुशवार है हर काम का आसाँ होना,
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना:"
इंसानी तहजीब इर्तेकई मरहले से गुज़र रही है. कई ज़मीनी खित्ते ऐसे है जहाँ आज भी इंसान जानवर का बच्चा है. कहीं पर अभी भी इंसान आदमी के बच्चे के इरतेकाई माहोल में पड़ा हुवा है और दुन्या के बहुत से खुश नसीब ज़मीनी टुकड़े हैं जहाँ कहा जा सकता है आदमी इंसान के मुक़ाम को पहुँच चुका है. इंसान को वहां पर लग भग सभी इंसानी हुकूक हासिल हो चुके हैं.
अब हम आते हैं इस्लाम पर ---इस्लाम वह शय है जो तस्लीम हो. इस्लाम, सब से पहले नहा धो कर आँखें बंद कर के बे चूं चरा कलिमा ऐ शहादत पढ़ कर इसे तस्लीम कर लिया जाए. इस्लाम को तस्लीम करलेने के बाद फर्द हर इंसानी मुक़ाम से दस्त बरदार होकर इस्लाम के जायज़ और ना जायज़ हुक्म मानने का पाबन्द हो जाता है. ईमानदार मोमिन होना तो उसके लिए बहुत दूर की बात हो जाती है. इंसानी और ईमानी शजरे की उन मानवी खूबियों से इस्लाम का कोई मतलब गरज़ नहीं जो अलामतें क़बले इस्लाम, हजारो साल पहले इस में उजागर हो चुकी थीं. सच्चाई तो यह है की इस्लाम ने हमारी आंखों में धूल झोंक कर इन क़दरों को इस्लामी इन्कलाब का रद्दे अमल क़रार दे दिया. सदयों बाद हमें लग रहा है दीन और ईमान इस्लाम की बख्शी हुई बरकतें हैं. इस में इस्लामी ओलिमा के झूटे प्रोपेगंडे का बड़ा हाथ है. ईमान इस्लाम से हजारों साल पहले इंसानियत के आते ही वजूद में आ चुका था, जब कि इस्लाम ने इसकी मिटटी पलीद कर दी. ईमान दारी यह है कि बे ईमानी और हठ धर्मी का दूसरा नम इस्लाम है.
ईमान दरी
ईमान दारी यकीनी तौर पर तमाम काम के लिए अम्न और क़याम का दरवाज़ा है और खुदाए मेहरबान के सामने अकीदात का निशान है. जो इसे पा लेता है वह धन दौलत के अंबार पा लेता है. ईमान दारी ही इन्सान की सुरक्षा और चैन का सब से बड़ा द्वार है. हर कम की पुख्तगी ईमानदारी पर निर्भर है. आलमी इज्ज़त, शोहरत और खुशहाली इसी के प्रकाश से चमकते हैं." ( बहा उल्लाह)
वैसे तो हदीस के लफ्ज़ी मानी हैं बात, ज़िक्र या क़िस्सा वगैरह मगर इस्लाम ने कई अल्फाज़ के "इस्लामी कारन" कर लिए हैं, तो इसके इस्लामी इस्तेलाह में मानी ही असल मानी बन गए हैं. अब हदीस का अवामी मानी हो गया है मुहम्मद के फ़रमूदात या फिर उनकी नक्लो हरकत में कही गई बातें. मुहम्मद की तस्लीम रिसालत यानी फ़तह मक्का के बाद ही इन की कही हुई बातों का लोग हवाला देने लगे थे. साथ साथ लोग अपनी बात भी मुहम्मद के हवाले से कहने लगे, गरज़ मुहम्मद के ज़माने से ही हदीसों में मिलावट शुरू हो गई थी जो आज तक जरी है. हदीसों के सैकडों आयमा और दर्जन भर किताबें है, मगर इस के सब से बड़े इमाम " शरीफ मुहम्मद इब्ने इब्राहीम इब्ने मुगीरा जआफी बुखारी" हैं, जिन को उर्फे आम में "इमाम बुखारी" कहा जाता है. यह बज़ाद ख़ुद और इनके पूर्वज आतश परस्त, किसान थे. कहते हैं इमाम बुखारी ने साठ साल की उम्र में इस्लाम कुबूल किया. इनके बारे में बहुत मुबालगा आराइयाँ हैं. इस्लामी आलिमाने दिन लिखते हैं इनको तीन लाख हदीसें याद थीं, छ लाख का मुतालेया था, इस के आलावा इबादत का वह आलम था कि बस लिखने में कराहियत होती है. मुख्तसर यह कि उनकी किताब से फ़क़त २१५५ हदीसें मिलीं.
हदीसों के बारे में थोड़ा और जान लें. कि यह मुहम्मद की ज़िन्दगी में ही इतनी राएज हो गई थी कि उनसे पूछ पुछव्वल की नौबत आ जाती, गरज़ ख़ुद उनको इस पर पाबंदी आयद करनी पड़ी.५०० हदीसें अबुबकर ने आएशा के सामने नज़ारे आतिश किया. ऐसा वक्त आता रहा कि खलीफा हदीसों पर पाबंदियां लगते रहे. मुहम्मद ख़त्म हुए, सहाबी ख़त्म हुए, ताबेइन ख़त्म हुए, ताबा ताबईन ख़त्म हुए, २०० साल गुजर गए, हदीसें नापैद रहीं. उसके बाद फिर इसकी वबा आई सैकडों मुहक़्क़िन पैदा हुए कई किताबें वजूद में आईं, बाज़ी मारा इमाम बुखारी ने जिस का बुखार कुरान के बाद इस्लामी दुन्या पर हदीसों का चढा हुवा है, इमाम बुखारी की तालीफ़ "सहीह बुखारी" पर मुझे सौ फी सदी एतबार है कि उन्हों ने दयानत दारी का मुजाहिरह जिसारत के साथ किया है. न मुहम्मद की जानिब दारी की है न आले रसूल की और न ही अहले रसूल की. बुखारी की तहरीर से सदाक़त का पता चलता है जिसे इस्लामी आलिम शायद नज़र अंदाज़ करते हैं.
दूसरे नम्बर पर इमाम मुस्लिम आते हैं जिनकी तालीफ़ है "सहीह मुस्लिम" इमाम बुखारी की तरह ही इमाम मुस्लिम के बारे में इस्लामी ओलिमा ने निहायत मुबालगे से काम लिया है. लिखते हैं कि मुस्लिम साहब ने चार लाख हदीसें जमा कीं, इनका मुतालेअकिया, जांचा, परखा, इन में से एक लाख रद्द कर दीं. इस काम और जिन्गदी के दीगर ज़रूरी कामों के लिए इमाम साहब को ५०० साल की तवील उम्र चाहए थी मगर पाई सिर्फ़ ५५साल की जिसमें २० साल सोने की और २० साल तालिब इल्मी की घटा दें तो बचे १५ साल. आलिमाने दीन की कज अदाई हमेशा मुसलमानों को नींद की नशा आवर गोलियां देने की रही हैं. यही सब से बड़े इंसानियत के मुजरिम हैं और इन्हों ने ही मुसलामानों को मौत की कगार पर लाकर खडा कर दिया है. यह ज़्यादा तर इन्तेहाई दर्जा कुरीच, अय्यार, और धूर्त होते हैं या फिर अक्ल से पैदल. उम्मते मुहम्मदी तो खैर अक्ल से पैदल पैदाइशी है. इसकी नजात का एक ही हल है कि इन ओलिमा को चुन चुन कर इन से वीराने में हल जुतवाए जाएँ या फिर इन सभों को बहरे अलकाहिल में डुबो दिया जाए. इन की तमाम तस्नीफें आग के हवाले कर दी जाएँ. फिलहाल यह सब मुमकिन नहीं है मगर ऐसा एक दिन ज़रूर आएगा, जब इन के साए से लोग भागेंगे, जैसे खारिश ज़दा कुत्ते को देख कर या गलाज़त आलूद खिंजीर से दूर भागते हैं.
एक मुहक्किक हदीस दूसरे के बारे में कहते हैं,
" अब्दुल्ला बिन मुबारक से रवायत है कि कहा अगर मुझे अख्त्यार दिया जाए जन्नत में जाऊं या पहले अब्दुल्ला बिन मुहर्रिर से मिलूँ तो मैं जन्नत बाद में जाता, पहले इन से मिलता, इन की तारीफ़ सुनता था और इन से मिलने का शौक़ इतना बढ़ गया था. पर जब मैं उन से मिला तो एक ऊँट की मेंगनी मुझे उन से बेहतर लगी.
(मुक़दमा सहीह मुस्लिम)
तो ये रहे भरोसे मंद माजी के लोग और आज के मौजूदा समाज में भी ऐसे टिकया चोर आलिम ही पाए जाते हैं.
ज़ोहरी कहते हैं,

" इस्लाम ज़ुबान से इकरार करना है और ईमान आमाले सालाह को कहते हैं और सहीह यह है कि इस्लाम आम है और ईमान खास, तो हर मोमिन मुस्लिम है, लेकिन हर मुसिम मोमिन होना ज़रूरी नहीं. ईमान की अस्ल तस्दीक है, दिल से यकीन करना और इस्लाम की अस्ल फरमा बरदारी है यानी इताअत ."(सहीह मुस्लिम- - - किताबुल ईमान)

एक हदीस ने मेरे जज़्बात को मजरूह करके रख दिया इन्सानी दिल को बहुत ठेंस लगी, रही सही उनकी (मुहम्मद) इज्ज़त मेरे दिल से जाती रही. किसी ने पूछा " या रसूल अल्लाह ! मेरा बाप जो कबले नबूवत मर गया था, वह कहाँ होगा ? बोले दोज़ख में. वह मायूस होकर पीठ मोड़ कर जाने लगा, आवाज़ दी "सुन! तेरा बाप और मेरा बाप दोनों दोज़ख में होंगे."

मुहम्मद का दबदबा ऐसा था कि जवाब पर सवाल गुस्ताखी मानी जाती. मुहम्मद जब अपनी माँ के पेट में थे तो उनके बाप कि मौत हो गई थी, चालीस साल बाद उनको ख़ुद साख्ता नबूवत की जाल साजी मिली, जिस के जाल में उन्हों ने अपने मरहूम बाप को भी फंसा लिया जिस गरीब को इस्लाम की हवा भी नहीं लगी. ऐसी ही एहसान फरामोशी मुहम्मद ने अपने चाचा अबी तालिब के साथ भी किया, कहा दोज़ख में इन के पैरों में आतिशी जूते होंगेजिन में इन का भेजा पक रहा होगा. मुहम्मद एक ख़ुद परस्त इंसान थे. देखे उन्हों ने कैसी कैसी इंसानियत दुश्मन बातें की हैं अपनी हदीसों में. अकीदत की टोपी और आस्था का चश्मा उतार कर, सदाक़त पर ईमान लाएं.

मुसलमान इस वक्त बहुत बोझिल तबा को ढो रहा है. हर मुस्लमान लाशुऊरी तौर पर बोझिल है, वजह ये है कि वह झूट के जाल में बुरी तरह फँसा हुवा है. कुरानी और हदीसी दरोग के बोझ से दबा हुवा है, घुट रहा है, उसको सदाक़त की राह दिखने वाला कोई नहीं है. जिस दिन मुस्लमान सदाक़त की राह को पा जाएगा, वह दुन्या की बरतर क़ौम होगा. वह मुस्लमान जिस का कोई अल्लाह न होगा, कोई रसूल न होगा, कोई इस्लाम न होगा, वह सिर्फ़ और सिर्फ़ मोमिन होगा. ईमान दार मोमिन और उस मोमिन के पीछे होगा ज़माना. " मोमिन मुतलक "
बईमानाहू
हदीसी हादसे
जैसी नियत वैसी बरकत (१)
ओमर बिन खिज़ाब कहते हैं " मुहम्मद का फ़रमान है कि नियत के इरादे से ही हिजरत का सिलह मिलता है. दुन्या हासिल करने की या औरत " (बुखारी १)
गौर करें, न दीन की, न आकबत की, न कारे खैर की, मुह्सिने इंसानियत के इरादे पर मुलाहिज़ा हों. हज़रात इब्राहीम के बाप तेराह (आज़र) को कई बार खुदा ने ख्वाब में कहा था हिजरत कर, मैं तुझ को दूध और शहद कि नदियों वाला देश दूँगा, बूढा तेराह तो हिजरत कर न सका मगर बेटे इब्राहीम, बहू सारा और भतीजे लूत को हिजरत पर भेज दिया. इंसानी तवारीख की ये पहली हिजरत थी जिसका ख्वाब हर यहूदी अंबिया देखते रहे, यहूदियों का ये ख्वाब, ख्वाब ही रहा जो कभी पूरा न हुवा. यहूदियों का ये ख्वाब एक तशना विरासत है. इस्राईल भी दुन्या के नक्शे पर चन्द रोजा मेहमान है. दर अस्ल यहूदियों के खुदा ने धीरे से इनके कान में यह भी कह दिया था की तुम दुन्या की कौमों में बरतर हो और सब पर हाकिम बनोगे.
देखा गया है हिजरत होती तो है बड़ी मजबूरी में मगर मौक़ा पाते ही जालिम ओ जाबिर हो जाती है. अक्सर महाजिर गालिब और मुकामी मज़लूम हो जाते हैं. हिजरत के ख़िलाफ़ दुन्या में आवाज़ बुलंद हो चुकी है. मुहम्मद की हिजरत तो इस हदीस की नियत से ही ज़ाहिर है कि वह क्या थे. जान बचा कर अपने ससुर अबुबक्र के साथ पैदल मक्का से मदीना भाग कर आने का नाम हिजरत दिया गया और इस पर एक तारीखी सदी हिजरी बन गई मगर इनका पयंबरी नजरिया मुलाहेज़ा हो कि मुहाजिरीन की नियत क्या हो? औरत या दुन्या? दीन और आकबत नदारद जिस के दीवाने मुस्लमान है. मौलाना ठीक ही कहते हैं " हिजरत बमाने हिज्र विसाले सनम जो हो"
वही की आमद (२)
आयशा मुहम्मद की बीवी कहती हैं कि उन्हों ने अपने शौहर से पूछा " आप पर वही कैसे आती है? बोले कभी अन्दर घंटी जैसी बजती है, इस सूरत में बड़ी गरानी होती है और कभी फ़रिश्ता बशक्ल इंसान नाजिल होकर हम कलाम होता है. मैं फ़रमान यादकर लेता हूँ. आएशा कहती हैं सर्दी के ज़माने में जब वही आती थी तो माथे पर पसीने की बूँदें निकल आती थीं "
आएशा सिने बलूगत में आते आते १८ साल कि उम्र में बेवा हो गईं. एक बड़ी तादाद वहियों की उनसे वाबिस्ता है. नाबालिग़ और मासूम क्या समझ सकती थी मुहम्मद की वाहियों का गैर फितरी खेल? जब मुहम्मद ने इस पर इब्ने अब्दुल्ला इब्न बी स्लूल के इल्जाम तराशी के असर में आकर शक किया था और एक महीना तक कता ताल्लुक़ रहे, तब भी शौहर ने माफ़ करने में इसी वही का सहारा लिया और आएशा ने इन की वही की पुड्या को इन के मुंह पर मार दिया और कहा था " मैं और मेरा अल्लाह बेहतर जनता है कि मैं किया हूँ " वही का कारो बार मुहम्मद ने ऐसा ईजाद किया कि मुसलमानों के दिल ओ दिमाग पर काई की तरह ये बैठ कर रह गई है. मुहम्मद से पहले न किसी पर ये वही आई, न मुहम्मद के बाद, चौदह सौ साल गुज़र गए हैं, अल्लाह किसी पर सवार नहीं हुवा, हाँ! शैतान ,भूत, परेत और चुडैल वगैरह मक्कार औरतों पर और अय्यार मरदों पर सवारी करते देखे गए हैं जिन का इलाज झाडुओं की पिटाई से होता है. आख़िर मुसलमान जागता क्यूं नहीं? .





Sunday, February 15, 2009

हदिसी हादसे 2

3-गार हेरा में वही की पहली आमद
मुहम्मद गारे हरा में दिन भर का खाना लेकर चले जाते, पैगंबरी के लिए मुस्तकबिल की मंसूबा बंदी किया करते. एक दिन आख़िर कार अपनी पैगम्बरी के एलान का इरादा उन्हों ने पक्का कर ही लिया और सब से पहले इसकी आज़माइश अपनी बीवी खदीजा पर किया। कहा,"ऐ खदीजा! मैं गारे-हरा में था कि एक फरिश्ते ने आकर कहा पढ़ ! मैं ने कहा मैं पढा नहीं हूँ , फरिश्ते ने मुझे पकड़ा और दबोचा, इतना कि मैं थक गया और मुझे छोड़ दिया। इसी तरह तीन बार फ़रिश्ते ने मेरे साथ (नज़ेबा) हरकत किया और तीनों बार मैं ने इस को अपने को अनपढ़ होने का वास्ता दिया, तब उस (घामड़) की समझ में आया कि वह जो कुछ पढा रहा है वह बिला किताब कापी स्लेट या सबक के है। चौथी बार उसको अपनी गलती का अहसास हुवा और उसने कहा पढ़ इकरा बिसम रब्बिकल लज़ी खलका यानि अपने मालिक का नाम ले कर पढ़जिस ने तुझे पैदा किया, पैदा किया. पैदा किया आदमी को खून कि फुटकी से और पढ़ तेरा मालिक बड़ी इज्ज़त वाला है, जिसने सिखलाया क़लम से, सिखलाया क़लम से वह जो जनता नहीं था .
(सहीह मुस्लिम - - - किताबुल ईमानबुखारी ३ )
यह होशियार मुहम्मद की पहली वही की कच्ची पुडिया थी, जो गारे हरा से बाँध कर सादः लौह बीवी खदीजा के लिए लाए थे, सीधी सादी खदीजा मुहम्मद के फरेब में आगई. आज की औरत होती तो द्स्यों सवाल दाग कर शौहर को रंगे हाथों पकड़ लेती और कहती खबर दार उस गार में दोबारा रुख मत करना, जहाँ शैतान तुम से ऐसी अहमकाना बातें करता है और दबोचता है. क़लम से तो आदमी आदमी को सिखलाता है या वह इज्ज़त वाला अल्लाह.? झूठे कहीं के, मक्कारी की बातें करते हो.
डर और खौफ की हैबत बनाए मुहम्मद घर आए और बीवी से कहा खदीजा हमें ढांप दो कपडों से, फिर सब बयान किया और कहा मुझे डर है अपनी जान का. खदीजा डर कर मुहम्मद को विरका बिन नोफिल के पास ले गईं जो रिश्ते में इनके चचा या चचा जाद भाई थे और नसरानी थे, उन्हों ने माजरा सुन कर बतलाया यह तो नामूस है जो मूसा पर उतरी थी . काश मैं उस वक्त तक जिंदा रहता. कहा तुम को तुम्हारी क़ौम निकाल देगी क्योकि जब कोई शरीयत और दीन ले कर आता है तो ये क़ौम उस के साथ ऐसा ही करती है. विरका की बातें इस्लामी एजेंटों की बनाई हुई कहानी मालूम पड़ती है।
(सहीह मुस्लिम - - - किताबुल-ईमान)
(४)दूसरी मशक
सहाबी जाबिर कहते हैं मुहम्मद ने कहा "मैं रह गुज़र में था कि आसमान से आवाज़ आई, सर उठा कर देखा तो वही फ़रिश्ता गार वाला कुर्सी पर बैठा नाज़िल हुवा, मैं घर आया चादर उढ़वाई, में डरा दूसरी आयत उसने याद कराई। इस के बाद कुरानी आयत उतरने लगीं.
(बुखारी- - -४)
* यानी मुहम्मद का वहियों का खेल घर के माहौल से शुरू हो गया. मुहम्मद के जाहिल और लाखैरे जान निसारों ने इन बातों का यकीन किया जो कि अहले मक्का नज़र अंदाज़ किया करते थे. वह सोचते कि मुहम्मद के जेहनी खलल से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. इनको गुमान भी न था की इन्हीं जाहिलों की अक्सरियत मक्का में कयाम करती है.
5-मुहम्मद का दावते इस्लाम शाह रूम के नाम - - -
" शुरू करता हूँ मैं अल्लाह ताला के नाम से,जो बडा मेहरबान और रहेम वाला है। मुहम्मद अल्लाह के रसूल कि तरफ से हर्कुल को मालूम हो जो कि रईस है रूम का, सलाम उस शख्स को जो पैरवी करे हिदायत की, बाद इस के मैं तुझ को हिदायत देता हूँ इस्लाम की दावत की, कि मुसलमान हो जा सलामत रहेगा (यानी तेरी हुकूमत,जान, इज्ज़त सब सलामत और महफूज़ रहेगी रहेगी) मुस्लमान हो जा अल्लाह तुझे दोहरा सवाब देगा। अगर तू न मानेगा तो तुझ पर वबाल होगा अरीस्यीन का। ऐ किताब वालो ! मान लो एक बात जो सीधी है और साफ है, हमारे और तुम्हारे दरमियान की, कि बंदगी न करें सिवाय अल्लाह ताला के किसी की,और शरीक न ठहराएँ इसके साथ किसी और को आख़िर आयत तक "
बुखारी - - -(७ )
६-हदीसी रवायत है की अबू सुफियान जब दावते इस्लाम शाह रूम हर्कुल के पास ले कर जाते हैं, वह (हर्कुल) इन से कुछ सवाल ओ जवाब करता है और इनको वहां से जान बचा कर वापस आना पड़ता है।
(सहीह मुस्लिम किताबुल जिहाद ओ सैर)
खत के मज़मून से अंदाजा लगाया जा सकता है की मुहम्मद और उनके मुशीरे कार कितने मुह्ज़्ज़ब थे। यह दवाते इस्लाम थी या अदावत की पहेल ? एक देहाती कहावत है 'काने दादा ऊख दो, तुहारे मीठे बोलन'।इस पर भी इस्लामी ओलिमा तहरीर में खूबियों के पहलू तराशते हैं.
७-मोमिन होने की शर्त
"कोई मोमिन उस वक्त तक अपने आप को मोमिन नहीं कह सकता जब तक कि वह ये आदत अख्तियार न करे कि जो चीज़ वह अपने वास्ते पसंद करता है वह दूसरे मोमिन के वास्ते भी पसंद करे।" ( बुखारी १३)
तअस्सुब और तअस्सुबी अल्फाज़ मुसलमानों का तकिया कलाम हैं। जहाँ कहीं दूसरों में मुसलमानों के लिए रवा दरी न देखी या भेद भाव देखा फट से कह दिया साला तअस्सुबी है, देखिए कि ख़ुद इस्लाम तअस्सुब मुसलमानों को किस तरह घोल घोल कर पिलाता है. हिंदू हिंदू के लिए नर्म गोशा रखे तो तअस्सुबी, मुस्लमान मुस्लमान के लिए हम दर्द रहे तो मोमिन. तअस्सुब का मूजिद भारत में दर अस्ल यही इस्लाम है जो उल्टा तअस्सुब का शिकार हो गया है.
८-मोमिन होने का दावा
" मुहम्मद कहते हैं उस वक्त तक कोई मोमिन होने का दावा नहीं कर सकता जब तक की में उसके मजदीक उसके माँ बाप दोनों से मजदीक न हो जाऊं " मार्फ़त अनस मुहम्मद का फरमान है कि "माँ बाप के अलावः ओलादों से भी ज़्यादा मोमिन को मुहम्मद महबूब हों" (बुखारी १४-१५) {ऐसा ही फरमान ईसा का भी है }
किस हद तक ख़ुद परस्ती की गहरी गार में गिर सकते हैं मुहम्मद, इन हदीसों से अंदाजा लगाया जा सकता है। इस हदीस के असर में आकर उस वक्त के चापलूस सहाबियों ने कहना शुरू कर दिया था , "आप पर मेरे माँ बाप कुर्बान या रसूल अल्लाह!" जिसे अहमक ओलिमा आज तक दोहरा रहे हैं . कोई इन गधों से पूछे कि तुम को अपने खालिक़ को कुर्बान करने का हक किसने दिया है? वह तुम्हारे बनाए हुए या खरीदे हुए खिलौने हैं ? औलाद को कुर्बान करने की बात उस दौर में सहीह कही जा सकती है जो आज जुर्म है. जैसा की इब्राहीम और इशाक की कहानी बनाई गई है. खालिक अपनी तखलीक को मिटा सकती है मगर तखलीक खालिक को नहीं. बन्दा खुदा को नहीं मिटा सकता. कितना सर्द खून उन लोगों का रहा होगा जिन्हों ने मुहम्मद के इस कौल को सुन कर खामोशी अख्तियार कर ली होगी, कितना फासिद खून उन लोगों का रहा होगा जिन्होंने फरमान को लब बयक कहा होगा. और कितना मशकूक खून उन लोगों का रहा होगा जिन्हों ने अपने वालदैन की अजमत को एक ख्याल, एक नज़रिए के बदले बेच दिया. एक लायक माँ बाप के पैर कि धूल भी कोई रसूल नहीं हो सकता.
९- माँ बाप से बढ़ कर
अनस से रवायत है कि मुहम्मद ने कहा "कोई शख्स मोमिन नहीं हो सकता जब तक कि उस को मेरी मुहब्बत माँ बाप औलाद और सब से ज्यदा न हो" (मुस्लिम किताबुल ईमान)
हदीसों के जेहनी गुलाम इस्लामिक दहशत गर्द के मुज्जस्सम सिपाही होते हैं, साथ साथ अपने माँ बाप की नालायक तरीन औलाद भी, समज के बद तर फर्द और किसी अंजान के रेमोट बन जाते हैं। ऍसी हदीसों से तन्हा एह का नुकसान नहीं होता हजारो लायक सपूतों का नुकसान होता है और मुस्लमान रुसवा होते हैं.
१०-अनस कहते हैं "अंसार से मुहब्बत ईमान है और बोग्ज़ निफाक" (बुखारी १७)
११-अंसार और अली से मुहब्बत रखना ईमान है और इन से बोग्ज़ रखना हराम है"
(मुस्लिम - - -किताबुल ईमान)
ईमान की तशरीह मैं शुरू में कर चुका हूँ कि ईमान कोई मान्यता नहीं है बल्कि ज़मीर से निकली हुई आवाज़ है, धरम कांटे की तोल है, अंसार जैसे टिकिया चोरों से मुहब्बत या अली जैसे आबाद बस्ती को नज़रे आतिश करने वाले से मुजरिम से हुब्ब ईमान का पैमाना नहीं होता है।

Sunday, February 8, 2009

हर्फ़े-गलत (Qist-1)

सूरह फातेहा (१)
  • सब अल्लाह के ही लायक हैं जो मुरब्बी हें हर हर आलम के। (१)
  • जो बड़े मेहरबान हैं , निहायत राहेम वाले हैं। (२)
  • जो मालिक हैं रोज़ जज़ा के। (३)
  • हम सब ही आप की इबादत करते हैं, और आप से ही दरखास्त मदद की करते हैं। (४)
  • बतला दीजिए हम को रास्ता सीधा । (५)
  • रास्ता उन लोगों का जिन पर आप ने इनआम फ़रमाया न कि रास्ता उन लोगों का जिन पर आप का गज़ब किया या (६)
  • और न उन लोगों का जो रस्ते में गुम हो गए। (७)
  • ( पहला पारा जिसमें ७ आयतें हैं)
  • कहते है कुरआन अल्लाह का कलाम है, मगर इन सातों आयतों पर नज़र डालने के बाद यह बात तो साबित हो ही नहीं सकती कि यह कलाम किसी अल्लाह जैसी बड़ी हस्ती ने अपने मुँह से अदा क्या हो। यह तो साफ साफ किसी बन्दा-ऐ-अदना के मुँह से निकली हुई अर्ज़दाश्त है. अल्लाह ख़ुद अपने आप से इस क़िस्म की दुआ मांगे, क्या यह मजाक नहीं है ? या फिर अल्लाह किसी सुपर अल्लाह के सामने गुज़ारिश कर रहा है ? अगर अल्लाह इस बात को फ़रमाता तो वह इस तरह होती -----

"सब तारीफ़ मेरे लायक़ ही हैं, मैं ही पालनहार हूँ हर हर आलम का. १

मैं बड़ा मेहरबान, निहायत रहेम करने वाला हूँ. 2

मैं मालिक हूँ रोज़े-जज़ा का..३

तो मेरी ही इबादत करो और मुझ से ही दरखास्त करो मदद की. ४

ऐ बन्दे मैं ही बतलाऊँगा तुझ को सीधा रास्ता . ५

रास्ता उन लोगों का जिन पर हम नें इनआम फ़रमाया .६

न की रास्ता उन लोगों का जिन पर हम ने गज़ब किया और न उन लोगों का जो रस्ते से गम हुए. 7"

मगर अगर अल्लाह इस तरह से बोलता तो ख़ुद साख्ता रसूल की गोट फँस गई होती और इन्हें पसे परदा अल्लाह बन्ने में मुश्किल पेश आती. बल्कि ये कहना दुरुस्त होगा कि मुहम्मद कुरआन को अल्लाह का कलाम ही न बना पाते.

इस सिलसिले में इस्लामीं ओलिमा यूँ रफू गरी करते हैं कि कुरान में अल्लाह कभी ख़ुद अपने मुँह से कलाम करता है, कभी बन्दे की ज़बान से. याद रखे कि खुदाए बरतर के लिए ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी कि वह अपने बन्दों को वहम में डालता और ख़ुद अपने सामने गिड़गिडाता.

गौर करें पहली आयत----कहता है ---"सारी तारीफें मुझे ही ज़ेबा देती हैं क्यो कि मैं ही पालन हार हूँ तमाम काएनातों में बसने वालों का."

अल्लाह मियाँ! अपने मुँह मियाँ मिट्ठू ? अच्छी बात नहीं, भले ही आप अल्लाह जल्ले शानाहू हों. प्राणी की परवरिश अगर आप अपनी तारीफ़ करवाने के लिए कर रहे हैं तो बंद करें पालन हारी. वैसे भी आप की दुन्या में लोग दुखी ज्यादा और सुखी कम हैं.

दूसरी आयत पर आइए-----आप न मेहरबान हैं, न रहेम वाले , यह आगे चल कर कुरानी आयतें चीख चीख कर गवाही देंगी, आप बड़े मुन्तक़िम ज़रूर हैं और बे कुसुर अवाम का जीना हराम किए रहते हैं.

तीसरी आयत ---यौमे जज़ा यहूदियों की कब्र गाह से बर आमद की गई रूहानियत की लाश, जिस को ईसाइयत ने बहुत गहराई में दफ़न कर दिया था, इस्लाम की हाथ लग गई, जिसे मुहम्मद ने अपनी धुरी बनाई. मुसलामानों की जिदगी का मकसद यह ज़मीन नहीं, वह आसमान की तसव्वुराती दुनिया है, जो यौमे-जज़ा के बाद मिलनी है. क़यामत नामा कुरआन पढ़ें. दर अस्ल मुसलमान यहूदियत को जी रहा है.

पाँचवीं आयत में अल्लाह अपने आप से या अपने सुपर अल्लाह से पूछता है कि बतला दीजिए हमको सीधा रास्ता. क्या अल्लाह टेढे रास्ते भी बतलाता है? यकीनन, आगे आप देखेंगे कि कुरानी अल्लाह किस कद्र अपने बन्दों को टेढे रास्तों पर गामज़न कर देता है जिस पर लग कर मुसलमान गुमराह हैं.

छटी आयत में अल्लाह कहता है रास्ता उन लोगों का रास्ता बतलाइए जिन पर आप ने करम फरमाया है. यहाँ इब्तेदा में ही मैं आप को उन हस्तियों का नाम बतला दें जिन पर अल्लाह ने करम फ़रमाया है, आगे काम आएगा क्यूं कि कुरान में सैकडों बार इन को दोहराया गया है. यह नम हैं---इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक़, लूत, याकूब, यूसुफ़, मूसा, दाऊद, सुलेमान, ज़कर्या, मरयम, ईसा अलैहिस्सलामन वगैरह वगैरह. याद रहे यह हज़रात सब पाषण युग के हैं, जब इंसान कपड़े और जूते पहेनना सीख रहा था छटी आयत गौर तलब है कि अल्लाह गज़ब ढाने वाला भी है. अल्लाह और अपने मखलूक पर गज़ब भी ढाए? सब तो उसी के बनाए हुए हैं बगैर उसके हुक्म के पत्ता भी नहीं हिलता, इंसान की मजाल? उसने इंसान को ऐसा क्यूं बनाया की गज़ब ढाने की नौबत आ गई?

सातवीं आयत में भी अल्लाह अपने आप से दुआ गो है कि न उन लोगों का रास्ता बतलाना `जो रास्ता गुम हुए. रास्ता गुम शुदा के भी चंद नाम हैं---आजार, समूद, आद, फ़िरौन, वगैरह. इन का भी नाम कुरान में बार बार आता है.

"मैं बहुत जेसारत, ईमानदारी और अपने ज़मीर की आवाज़ के साथ एलान करता हूँ कि कुरआनी अल्लाह, मुहम्मद का गढा हुवा एक मुखौटा है, जिस के पसे परदा वह ख़ुद बिराजमान हैं. कुरआन अपने यहूदी और ईसाई मुरीदों की मालूमाती मदद में रद्दो बदल करके, उम्मी ( निरक्षर और नीम शाएर) मुहम्मद का कलाम है.".

यह सूरह फातेहा की सातों आयतें कलाम-इलाही बन्दे के मुंह से अदा हुई हैं. यह सिलसिला बराबर चलता रहेगा, अल्लाह कभी बन्दे के मुंह, से बोलता है, कभी मुहम्मद के मुंह से, तो कभी ख़ुद अपने मुंह से. माहरीन द्ल्लाले कुरआन ओलिमा इस को अल्लाह के गुफ्तुगू का अंदाजे बयान बतलाते हैं, मगर माहरीन ज़बान इंसानी इस को एक उम्मी जाहिल का पुथन्ना करार देते हैं. जिस को मुहम्मद ने वज्दानी कैफियत में गढा है. मुहम्मद को जब तक याद रहता है कि वह अल्लाह की ज़बान से बोल रहे हें तब तक ग्रामर सही रहती है,जब भूल जाते है तो उनकी बात हो जाती है. यह बहुत मुश्किल भी था की पूरी कुरआन अल्लाह के मुंह से बुलवाते.

****अगली किस्त अगला कुरानी पारा ------


































Saturday, February 7, 2009

सूरह बकर २ पहला para

"अलम "
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत १ )

यह भी कुरान की एक आयत है. यानी अल्लाह की कोई बात है। ऐसे लफ्ज़ या हर्फ़ों को हुरूफ़े मुक़त्तेआत कहते हैं, जिन के कोई मानी नहीं होते। ये हमेशा सूरह के शुरुआत में आते है। आलिमाने दीन कहते हैं इन का मतलब अल्लाह ही बेहतर जानता है। मेरा ख़याल है यह उम्मी मुहम्मद की हर्फ़ शेनासी की हद या मन्त्र की जप मात्र थी, वगरना अल्लाह जल्ले शानाहू की कौन सी मजबूरी थी की वह अपने अहकाम को यूँ मोहमिल (अर्थ-हीन)और गूंगा रखता।

''ये किताब ऐसी है जिस में कोई शुबहा नहीं, राह बतलाने वाली है, अल्लाह से डरने वालों को।"

(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 2 )

आख़िर अल्लाह को इस कद्र अपनी किताब पर यक़ीन दिलाने की ज़रूरत क्या है? इस लिए कि यह झूटी है कुरान में एक खूबी या चाल यह है कि मुहम्मद मुसलामानों को अल्लाह से डराते बहुत हैं। मुसलमान इतनी डरपोक क़ौम बन गई है कि अपने ही अली और हुसैन के पूरे खानदान को कटता मरता खड़ी देखती रही, अपने ही खलीफा उस्मान गनी को क़त्ल होते देखती रही, उनकी लाश को तीन दिनों तक सड़ती खड़ी देखती रही, किसी की हिम्मत न थी की उसे दफनाता, यहूदियों ने अपने कब्रिस्तान में जगह दी तो मिटटी ठिहाने लगी., मगर मुसलमान इतना बहादुर है कि जन्नत की लालच और हूरों की चाहत में सर में कफ़न बाँध कर जेहाद करता है. आगे आप देखिएगा कि मुहम्मद के कुरआन ने मुसलामानों को कितने आसमानी फ़ायदे बतलाए हैं और गौर कीजिएगा कि उसमें कितने ज़मीनी नुकसान पोशीदा हैं.

"वह लोग ऐसे हैं जो ईमान लाते हैं छिपी हुई चीज़ों पर और क़ायम रखते हैं नमाज़ को यकीन रखते हैं इस किताब पर और उन किताबों पर भी जो इस के पहले उतारी गई हैं और यकीन रखते हैं आखिरत पर। बस यही लोग कामयाब हें"

(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 4-5)

हरगिज़ नहीं छिपी हुई चीजें चोर हैं, फरेब हैं, छलावा हैं। अल्लाह छुपा हुवा है, कुफ्र और शिर्क के हर पहलू छुपे हुए हैं. मुहम्मद कुरआन के मार्फ़त आप को गुराह कर रहे हैं. न कुरआन आसमानी किताब है न दूसरी और कोई किताब जिसको वह कहती है. जब असीमित आसमान ही कोई चीज़ नहीं है तो आसमान की तमाम बातें बकवास हैं. आखिरत का खौफ दिल में डाल कर मुहम्मदी खुदा ने इंसानी बिरादरी के साथ बहुत बड़ा जुर्म किया है. आखिरत तो वह है कि इंसान पूरी उम्र ऐसे गुजारे कि आखिरी लम्हे उसके दिल पर कोई बोझ न रहे. मौत के बाद कहीं कुछ नहीं है.

"बे शक जो लोग काफ़िर हो चुके हैं, बेहतर है उनके हक में, ख्वाह उन्हें आप डराएँ या न डराएँ, वह ईमान न लाएंगे। बंद लगा दिया है अल्लाह ने उनके कानों और दिलों पर और आंखों पर परदा डाल दिया है"

(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 6-7)

सारी कायनात पर कुदरत रखने वाला अल्लाह मामूली से काफिरों के सामने बेबस हो रहा है और अपने रसूल को मना कर रहा है कि इनको मत डराओ धमकाओ. यहाँ पर अल्लाह की मंशा ही नाक़ाबिले फ़हेम है कि एक तरफ़ तो वह अपने बन्दों के कानों में बंद लगा रखा है दूसरी तरफ़ इस्लाम को फैलाने की तहरीक? ख़ुद तूने आंखों और दिलों पर परदा डाल दिया है और अपने रसूल को पापड़ बेलने के काम पर लगा रखा है. यह कुछ और नहीं मुहम्मद की इंसानी फितरत है जो अल्लाह बन्ने की नाकाम कोशिश कर रही है. इस मौके पर एक वाकेया गाँव के एक नव मुस्लिम राम घसीटे उर्फ़ अल्लाह बख्श का याद आता है ---मस्जिद में नमाज़ से पहले मौलाना पेश आयत को बयान कर रहे थे, अल्लाह बख्श भी बैठा सुन रहा था, पास में बैठे गुलशेर ने पूछा "अल्लाह बख्श कुछ समझे ?"

अल्लाह बख्श ने ज़ोर से झुंझला कर जवाब दिया "क्या ख़ाक समझे ! "जब अल्लाह मियाँ खुदई दिल पर परदा डाले हैं और कानें माँ डाट ठोके हैं. पहले परदा और डाट हटाएँ, मोलबी साहब फिर समझाएं" भरे नामाज़ियों में अल्लाह कि किरकिरी देख कर गुलशेर बोला "रहेगा तू काफ़िर का काफ़िर''

"तुम्हारे ऐसे अल्लाह की ऐसी की तैसी" कहता हुवा घसीटा राम मस्जिद से बाहर निकल गया.


"और इन में से बाज़ ऐसे हैं जो कहते हैं ईमान लाए मगर वह अन्दर से ईमान नहीं लाए, झूटे हैं, चाल बाज़ी करते हैं अल्लाह से. उनके दिलों में बड़ा मरज़ है जो बढ़ा दिया जाएगा. इन के लिए सज़ा दर्द नाक है, इस लिए कि वह झूट बोला करते हैं."

(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 8-10)

मुहम्मद अल्लाह बने हुए हैं, उनके सामने झूट बोलने का मतलब था अल्लाह के सामने झूट बोलना. उस वक्त के माहौल का अंदाजा करें कि इस्लाम किस कद्र गैर यकीनी रहा होगा और लोग ईमान के कितने कमज़ोर. कैसी कैसी चलें इस्लाम को चलाने के लिए चली जाती थीं. खुदा बन्दे के दिल में मरज़ बदाता था? कैसा खतरनाक था खुदा जो अभी तक बाकी बचा और कायम है. मुसलमानों ! आँखें खोलो, खुदा ऐसा नहीं होता. खुदा को ऐसा होने की क्या ज़रूरत आन पड़ी कि वह अपने बन्दे के लिए खतरनाक जरासीम बन जाए ? क्या तुम टी बी के जरासीम की इबादत करते हो ? जागो, आँखें खोलो, खतरे में हो-


"और जब उनसे कहा जाता है कि ईमान लाओ उनकी तरह जो ईमान ला चुके हैं तो जवाब में कहते हैं कि क्या हम उनकी तरह बे वकूफ हैं ? याद रखो की यही बे वकूफ हैं जिस का इन को इल्म नहीं." (सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 13)


कुरआन के पसे मंज़र में ही रसूल कि असली तस्वीर छिपी हुई है. मुहम्मद अल्लाह के मुंह से कैसी कच्ची कच्ची बातें किया करते हैं, नतीजतन मक्का के लोग इस का मज़ाक बनाते हैं. इनको लोग तफरीहन खातिर मं लाते हैं. ताकि माहौल में मशगला बना रहे. इनकी कयामती आयतें सुन सुन अक्सर लोग मज़े लेते हैं. और ईमान लाते हैं, उन पर और उन के जिब्रील अलैहिस्सलाम पर. महफ़िल उखड़ती है और एक ठहाके के साथ लोगों का ईमान भी उखड जाता है. इस तरह बे वकूफ बन जाने के बाद मुहम्मद कहते हैं यह लोग ख़ुद बेवकूफ हैं, जिसका इन को इल्म नहीं. इस्लाम पर ईमान लाने का मतलब है एक अनदेखे और पुर फरेब आक़बत से ख़ुद को जोड़ लेना. अपनी मौजूदा दुन्या को तबाह कर लेना. बगैर सोंचे समझे, जाने बूझे, परखे जोखे, किसी की बात में आकर अपनी और अपनी नस्लों कि ज़िन्दगी का तमाम प्रोग्राम उसके हवाले कर देना ही बे बेवकूफी है. ख़ुद मुहम्मद अपनी ज़िन्दगी को कयाम कभी न दे सके, और न अपनी नस्लों का कल्याण कर सके, यहाँ तक कि अपनी उम्मत को कभी चैन की साँस न दिला पाए .

"वह बहरे हैं, गूंगे हैं और अंधे हैं, सो अब ये ईमान लाने पर रुजू नहीं होंगे. मगर वह(अल्लाह) इन्हें घेरे में लिए हुए है. अगर वह चाहे तो उनके गोशो चश्म (कान और आँख) को सलब (गायब) कर सकता है. वह ज़ात ऐसी है जिसने बनाया तुम्हारे लिए ज़मीन को फ़र्श और आसमान को छत और बरसाया आसमान से पानी, फिर उस पानी से पैदा किया फलों की गिजा" (सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 18-22)

मुहम्मद गली सड़क, खेत खल्यान हर जगह सूरते कुरानी की यह आयतें गाया करते. लोग दीवाने की बातों पर कोई तवज्जो न देते और अपना काम किया करते. आजिज़ आकर मुहम्मद कहते ---"वह बहरे हैं, गूंगे हैं और अंधे हैं, सो अब ये ईमान लाने पर रुजू नहीं होंगे. मगर वह इन्हें घेरे में लिए हुए है. अगर वह चाहे तो उनके गोशो ---चश्म ----ऐसी बातें मुहम्मद कुरआन में बार बार दोहराते हैं, भूल जाते हैं कि कुरआन अल्लाह का कलाम है अगर वह बोलता तो यूँ कहता "मैं चाहूँ तो -------

मुसलमानों! कुरआन की शुरुआत है ,ऐसी बातों से ही कुरआन लबरेज़ है. कोई भी कारामद नुस्खा इसमें नहीं है, सिवाए बहलाने, फुसलाने और धमकाने के. इस्लाम मुहम्मद की एक साज़िश है अरबों के हक़ में और गैर अरबों के ख़िलाफ़ जिसको अंधी क़ौम मुसलमान कही जाने वाली ये आलमी बिरादरी जब भी समझ जाए सवेरा होगा.

musalsal jaari---------





मेरा दावा

जिस तरह से अक़्ल को ताक़ पर रख कर और अकीदत को सर में रख कर, तीन बार कलमए शहादत पढ़ लेने के बाद कोई भी शख्स मुसलमान हो सकता है, उसी तरह अक़ीदत को ताक़ पर रख कर और अक़्ल को सर में रख कर कोई भी मुसलमान "हर्फ़े-ग़लत" को सिर्फ़ दो बार पढ़ने के बाद मुसलमान से इंसान और सिर्फ़ इंसान बन सकता है. मोमिन मुतलक़

यह जहन्नुमी आलिमाने-दीन

क़यामत के दिन तमाम इस्लामी ओलिमा और आइमा को चुन चुन कर अल्लाह जब जहन्नम रसीदा कर चुकेगा तो ही उसके बाद दूसरे बड़े गुनाहगारों की सूची-तालिका अपनी हाथ में उठाएगा. यह (तथा कथित धार्मिक विद्वान) टके पर मस्जिद और कौडियों में मन्दिर ढ़ा सकते हैं। दरोग, किज्ब, मिथ्य और झूट के यह मतलाशी, शर और शरारत के खोजी हुवा करते हैं। इनकी बिरादरी में इनके गढे झूट का जो काट न कर पाए वही सब से बड़ा आलिम होता है। यह इस्लाम के अंतर गत तस्लीम शुदा इल्म के आलिम होते हैं यानी कूप मंडूक जिसका ईमान से कोई संबंध नहीं होता। लफ्ज़ ईमान पर तो इस्लाम ने कब्जा कर रखा है, ईमान का इस्लामी-करण कर लिया गया है, वगरना इस्लाम का ईमान से दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। ईमान धर्म-कांटे का निकला हुवा सच है, इस्लाम किसी इंसान की बतलाई हुई ऊल-जुलूल बातें हैं, जिसको आँख मूँद कर तस्लीम कर लेना इस्लाम है । अमरीकी प्रोफेसर सय्यद वकार अहमद हुसैनी कहते हैं "कुरान की 6226 आयातों में से 941 पानी के विज्ञानं और इंजीनयरिंग से संबध हैं, 1400 अर्थ शास्त्र से, जब कि केवल 6 रोजे से हैं और 8 हज से।" प्रोफेसर हुसैनी का ये सफेद झूट है, या प्रोफ़सर हुसैनी ही फर्ज़ी अमरीकी प्रोफ़सर हैं, जैसा कि ये धूर्त इस्लामी विद्वान् अक्सर ऐसे शिगूफे छोड़ा करते हैं । कुरआन कहता है "आसमान ज़मीन की ऐसी छत है जो बगैर खंभे के टिका हुआ है. ज़मीन ऐसी है कि जिस में पहाडों के खूटे ठुके हुए हैं ताकि यह अपनी जगह से हिले-डुले नहीं" और "इंसान उछलते हुए पानी से पैदा हुवा है" कुरान में यह है इंजीनयरिंग और पानी का विज्ञान जैसी बातें। इसी किस्म के ज्ञान (दर अस्ल अज्ञान) से कुरान अटा पडा है जिस पर विश्वास के कारण ही मुस्लिम समाज पिछड़ा हुवा है. मलऊन ओलिमा इन जेहाल्तो में मानेयो-मतलब पिरो रहे हैं. हकीक़त ये है की कुरान और हदीस में इंसानी समाज के लिए बेहद हानि कारक, अंधविश्वास पूर्ण और एक गैरत मंद इंसान के लिए अपमान जनक बातें हैं, जिन्हें यही आलिम उल्टा समझा समझा कर मुस्लिम अवाम को गुमराह किया करते है।
अभी पिछले दिनों एन डी टी वी के प्रोग्राम में हिदुस्तान की एक बड़ी इस्लामी जमाअत के दिग्गज और ज़िम्मेदर आलिम, जमाअत का प्रतिनिधित्व करते हुए भरी महफ़िल में अवाम की आंखों में धूल झोंक गए। बहस का विषय तसलीमा नसरीन थी। मौलाना तसलीमा की किताब को हवा में लहराते हुए बोले,"तसलीमा लिखती है 'उसने अपने बहू से शादी की " गुस्ताख को देखो हुज़ूर की शान में कैसी बे अदबी कर रही है।" ( मोलवी साहब को मालूम नहीं कि अंग्रेज़ी से हिन्दी तर्जुमा में यही भाषा होती है।) आगे कहते है "हुज़ूर की (पैगम्बर मुहम्मद की ) कोई औलादे-नरीना (लड़का) थी ही नही तो बहू कैसे हो सकती है ?" बात टेकनिकल तौर पर सच है मगर पहाड़ से बड़ा झूट, जिसे लाखों दर्शकों के सामने एक शातिर और अय्यार मौलाना बोलकर चला गया और अज्ञात क़ौम ने तालियाँ बजाईं। उसकी हकीक़त का खुलासा देखिए-----
किस्से की सच्चाई ये है कि ज़ैद बिन हारसा एक मासूम गोद में उठा लेने के लायक बच्चा हुवा करता था। उस लड़के को बुर्दा फरोश (बच्चे चुराने वाले) पकड़ कर ले गए और मुहम्मद के हाथों बेच दिया। ज़ैद का बाप हारसा बेटे के ग़म में परेशान ज़ारों-क़तार रोता फिरता। एक दिन उसे पता चला कि उसका बेटा मदीने में मुहम्मद के पास है, वह फिरोती की रक़म जिस कदर उससे बन सकी लेकर अपने भाई के साथ,मुहम्मद के पास गया। ज़ैद बाप और चचा को देख कर उनसे लिपट गया। हारसा की दरखास्त पर मोहम्मद ने कहा पहले ज़ैद से तो पूछो कि वह किया चाहता है ? पूछने पर ज़ैद ने बाप के साथ जाने से इनकार कर दिया, तभी बढ़ कर मुहम्मद ने उसे अपनी गोद में उठा लिया और सब के सामने अल्लाह को गवाह बनाते हुए ज़ैद को अपनी औलाद और ख़ुद को उसका बाप घोषित किया। ज़ैद बड़ा हुवा तो उसकी शादी अपनी कनीज़ ऐमन से कर दी। बाद में दूसरी शादी अपनी फूफी ज़ाद बहन ज़ैनब से की। ज़ैनब से शादी करने पर कुरैशियों ने एतराज़ भी खड़ा किया कि ज़ैद गुलाम ज़ादा है, इस पर मुहम्मद ने कहा ज़ैद गुलाम ज़ादा नहीं, ज़ैद, ज़ैद बिन मुहम्मद है। मशहूर सहाबी ओसामा ज़ैद का बेटा है जो मुहम्मद का बहुत प्यारा था. गोद में लिए हुए उम्र के ज़ैद वल्द मुहम्मद एक अदद ओसामा का बाप भी बन गया और मुहम्मद के साथ अपनी बीवी ज़ैनब को लेकर रहता रहा, बहुत से मुहम्मद कालीन सहाबी उसको बिन मुहम्मद मरते दम तक कहते रहे और आज के टिकिया चोर ओलिमा कहते हैं मुहम्मद की कोई औलादे-नरीना ही नहीं थी. सच्चाई इनको अच्छी तरह मालूम है कि वह किस बात की परदा पोशी कर रहे हैं.
दर अस्ल गुलाम ज़ैद की पहली पत्नी ऐमन मुहम्मद की उम्र दराज़ सेविका थी ओलिमा उसको पैगम्बर की माँ की तरह बतला कर मसलेहत से काम लेते है. खदीजा मुहम्मद की पहली पत्नी भी ऐमन की हम उम्र मुहम्मद से पन्द्रह साल बड़ी थीं. ज़ैद की जब शादी ऐमन से हुई, वह जिंस लतीफ़ से वाकिफ भी न था. नाम ज़ैद का था काम मुहम्मद का, चलता रहा. इसी रिआयत को लेकर मुहम्मद ने जैनब, अपनी पुरानी आशना के साथ फर्माबरदार पुत्र ज़ैद की शादी कर दी, मगर ज़ैद तब तक बालिग़ हो चुका था . एक दिन, दिन दहाड़े ज़ैद ने देखा कि उसका बाप मुहम्मद उसकी बीवी जैनब के साथ मुंह काला कर रहा है, रंगे हाथों पकड़ जाने के बाद मुहम्मद ने लाख लाख ज़ैद को पटाया कि ऐमन की तरह दोनों का काम चलता रहे मगर ज़ैद नहीं पटा. कुरआन में सूरह अखरब में इस तूफ़ान बद तमीजी की पूरी तफ़सील है मगर आलिमाने-दीन हर ऐब में खूबी गढ़ते नज़र आएंगे.
इसके बाद इसी बहू ज़ैनब को मुहम्मद ने बगैर निकाह किए हुए अपनी दुल्हन होने का एलान किया और कहा कि "ज़ैनब का मेरे साथ निकाह सातवें आसमान पर हुवा, अल्लाह ने निकाह पढ़ाया था और फ़रिश्ता जिब्रील ने गवाही दी।" इस दूषित और घृणित घटना में लंबा विस्तार है जिसकी परदा पोशी ओलिमा पूर्व चौदह सौ सालों से कर रहे हैं। इनके पीछे अल्कएदा, जैश, हिजबुल्ला और तालिबान की फोजें हर जगह फैली हुई हैं। "मुहम्मद की कोई औलादे-नारीना नहीं थी" इस झूट का खंडन करने की हिंदो-पाक और बांगला देश के पचास करोड़ आबादी में सिर्फ़ एक औरत तसलीमा नसरीन ने किया जिसका जीना हराम हो गया है।