Monday, March 30, 2009

Saturday, March 28, 2009

Thursday, March 12, 2009

झूट का एलान है - - - ये अज़ान


मुसलामानों क़ौम की अक़ल पर हैरत होती है कि वह अपने किसी अमल पर दोबारा एक बार नज़र नहीं डालती कि वह अपने पूर्वजों के पद चिन्हों पर चल कर किस दिशा में जा रही है. अज़ान की सुब्ह से शाम तक की आवाज़ें सिर्फ मुस्लमान ही नहीं सारी दुन्या सुनती है और उस से आशना है, दुन्या में लाखों मस्जिदें होंगी, उन पर लाखों मुअज़्ज़िन(अजान देने वाले) होंगे, दिन में पॉँच बार कम से कम ये बावाज़ बुलंद दोहराई जाती है. अज़ान नमाजों से पहले भी नमाज़ी, नमाज़ की नियत बांधने से पेश्तर पढता है. गरज हर मुअज़्ज़िन जितनी बार अज़ान देता है उसके चार गुना बार एलानिया झूट चीख चीख कर बोलता है और हर नमाज़ी जितनी बार नमाज़ की नियत बाँधता है उसके चार गुना बार बुदबुदाते हुए झूट बोलता है जो अनजाने में हर नमाज़ी पढता है.
देखिए अज़ान में सबसे बड़ा पहला झूट _
१-अश हदो अन्ना मुहम्मदुर रसूलिल्लाह
(मैं गवाही देता हूँ की मुहम्मद अल्लाह के रसूल{दूत} हैं) बोल नंबर 3
गवाही का मतलब क्या होता है ? कोई अदना मुस्लमान से लेकर आलिम, फ़ज़िल, दानिशवर, मुस्लिम बुद्धि जीवी बतलाएं कि एक साधारण मस्जिद का मुलाज़िम किस अख्तियार को लेकर या कौन से सुबूत उसके पास हैं कि वह अल्लाह और मुहम्मादुर्रूसूलिल्लाह का चश्म दीद गवाह बना हुवा है? क्या उसने सदियों पहले अल्लाह को देखा था? और क्या उसे मुहम्मद के साथ देखा था?, सिर्फ देखा ही नहीं, बल्कि अल्लाह को इस अमल के साथ देख था कि वह मुहम्मद को रसूल बना रहा है? क्या अल्लाह की भाषा उस के समझ में आई थी? क्या हर अज़ान देने वाले की उम्र १५०० साल के आस पास की है, जब कि मुहम्मद को ये नबूवत मिली थी.
याद रखें गवाही का मतलब शहादत होता है, अकीदत नहीं, आस्था नहीं, यकीन नहीं, कोई अय्यार आलिम शहादत से चश्म पोशी नहीं कर सकता. गवाही के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता. न ही राम चन्द्र परम हंस की तरह झूटी गवाही दे सकता है कि जैसा उसने गवाही के संसार में एक मिथ्य की नज़ीर क़ायम किया "गीता पर हाथ रख कर कहा कि उसने राम लला को बाबरी मस्जिद में जन्मते देखा"
इसलाम आलमी मज़हब और उसकी बुनियाद इतनी खोखली? हैरत है जेहालत के मेराज पर और इस क़ौम के जुमूद पर.
थोडा सा अज़ान का परिचय दे दूं तो आगे बढूँ - - -
"जब महाजरीन मक्का से मदीना आए, तो एक रोज़ इकठ्ठा होके सलाह मशविरा किया कि नमाज़ियों को इत्तेला करने के लिए कि नमाज़ का वक्त हो गया है, क्या तरीक़ए कार अख्तियार किया जाए. सभी ने अपनी अपनी राय पेश कीं, किसी ने राय दी कि यहूद की तर्ज़ पर सींग बजाई जाए, किसी ने अंसार की तर्ज़ पर नाक़ूश (शंख) फूकने की राए दी. किसी ने कुछ किसी ने कुछ. मुहम्मद सब की राय को सुनते रहे मगर उनको उमर की राय पसंद आई कि अज़ान के बोल बनाए जाएँ, जिस को बाआवाज़ बुलंद पुकारा जाए. मुहम्मद ने बिलाल को हुक्म दिया उठो बिलाल अज़ान दो." (बुखारी ३५३)
अज़ान चन्द लोगों के बीच किया गया एक फैसला था जिस में मुहम्मद के जेहनी गुलामों की सियासी टोली थी. अनपढों के बनाए हुए बोल थे महज़ , यहाँ तक कि मुहम्मद के मफरूज़ा इल्हामी वहियाँ भी न थीं जो बदली न जा सकतीं. हाँ उमर की अज़ान होने के बाईस बाद में शियों ने इस में कुछ रद्दो बदल कर दिया मगर इसे और भी दकयानूसी बना दिया. अज़ान मुसलमानों में इस क़द्र मुक़द्दस है कि बच्चे के पैदा होते ही इस झूट को उस के कानों में फूँक दिया जाता है.
अब आगे देखिए कि पंचों का ये फैसला मुहम्मद अपनी फरमूदत में कैसे ढालते हैं - - -
" मुहम्मद कहते हैं कि जब नमाज़ के लिए अज़ान दी जाती है तो शैतान पादता हुवा इतनी दूर भागता है कि जहाँ तक अज़ान की आवाज़ जाती है. जब अज़ान ख़त्म हो जाती है तो फिर वापस आ जाता है और तकबीर नमाज़ बा जमाअत के बाद फिर भाग जाता है. उसके बाद फिर आ जाता है और नमाजियों को वस्वसे में डाल देता है ----
(बुखारी ३५५)
इस झूटी गवाही की झूट अज़ान की इस तरह की बहुत सी बरकतों की एक तवील फेहरिस्त आप को मिलेगी.
२-अश हदोअन ला इलाहा इल्लिल्लाह
(मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक नहीं.) बोल नंबर २
यहाँ पर भी गवाही तो बहरहाल काबिले एतराज़ है चाहे इस्लामी अल्लाह हो, या आलमी अल्लाह हो या गाड हो. लायके इबादत भी मुनासिब नहीं. काबिले सताइश तो हो सकता है. कोई कुदरत अपनी इबादत की न ज़रुरत रखती है न ही उसकी ऐसी समझ बूझ होती है. उसकी तलाश में खुद उससे जूझते रहना उसकी दावत है और यही इन्सान के हक में है.
३- अल्ला हुअक्बर अल्लाह हुअक्बर
(अल्लाह बहुत बड़ा है) बोल नंबर १
बहुत बड़ी चीजें तभी होती हैं जब कोई दूसरी चीज़ उसके मुकाबले में छोटी हो. कुरआन का एलान है कि अल्लाह सिर्फ़ एक है तो उसका अज़ानी एलान बेमानी है कि अल्ला बहुत बड़ा है. मगर चूंकि इस्लाम एक उम्मी की रक्खी हुई बुन्याद है, इस लिए इस मे ऐसी खामियां रहना फितरी बात है. सच्चाई ये है की मुहम्मद ने एक तरफ़ दूसरा खुदा शैतान को बनाया है तो दूसरी तरफ ३६० काबा के बुतों को तोड़ कर एक बड़े अल्लाह के बाद, उसके रसूल बन कर खुद छोटे अल्लाह बन गए हैं. कलिमाए शहादत इसी बात की तिकड़म है. शैतन को छोटा अल्लाह उन खुदाई ताक़तों से नफरत के लिए जो कहीं पर कुछ चमत्कार रखती हों मगर यहाँ पर भी उम्मी मुहम्मद से भूल चूक हुई है जिस से शैतान बाज़ी मार ले गया है. कुरआन में शैतान को शैतानुर रज़ीम बार बार कहा गया है यानी शैतान अज़मत वाला(महा महिम) इसके मुक़ाबला में अल्लाह सिर्फ रहमान और रहीम. मुक़ाबला शुरू होता है कुरआन की कोई भी सूरह पढने से पहले, देखें - - -
आऊज़ो बिल्लाहे मिनस शैतानुर रजीम, बिस्मिल्ला हिरर रहमा निर रहीम.
नाम पहले शैतान का आता है और उसकी अज़मत के साथ, कारीगर ओलिमा रफू गरी करते रहें.
४- हैइया लस सला, हैइया लस सला.
(आओ नमाज़ की तरफ़ आओ नमाज़ की तरफ़) बोल नंबर ४
नमाजों में यही कुरानी इबारतें आंख मूँद कर पढ़ी जाटी हैं जो हर्फे गलत में आप पढ़ रहे हैं. मनन, मगन , चिंतन, ध्यान या नानक की तरह यादे इलाही में ग़र्क़ हो जाना नमाज़ नहीं है, कुरानी आयातों के पाठ्य में ज़ेर ज़बर का फर्क हुवा तो नमाज़ अल्लाह ताला तुम्हारे मुँह पर वापस मार देगा, बोर्ड इक्जाम की कापियों की तरह चेक होती है नमाजें. मैं इन नमाजों को पंज वक्ता खुराफ़ात कहता हूँ. जोश मलीहाबादी कहते हैं - - -

जिस को अल्लाह हिमाक़त की सज़ा देता है,
उसको बे रूह नमाज़ों में लगा देता है.

५- हैइया लल फला, हैइया लल फला
(आओ भलाई की तरफ ,आओ भलाई की तरफ) बोल नंबर ५
नमाज़ पढना किसी भी हालत में भलाई का काम नहीं कहा जा सकता. इंसानी या मख्लूकी फलाह ओ बहबूद के काम ही भलाई के काम कहे जा सकते हैं. मस्जिद में दाखला ही इस वक़्त सोच समझ कर करने की ज़रुरत है. नव जवानो को खास कर आगाही है कि वह मुल्लाओं के शिकार न बन जाए, मुसलामानों में तरके मस्जिद कि तहरीक चलनी चाहिए जैसे कि तरके मीलादुन नबी खुद बखुद वजूद में आगे है.

Saturday, March 7, 2009

हदीसी हादसे

हलीमा दाई की बकरियों को चराने वाले

मुहम्मद ने कहा "ऐसा ज़माना आने वाला है कि लोगों का बेहतर माल बकरियां होंगी. अपना दीन बचाने की ग़रज़ से वह उन्हें सब्ज़ा ज़ार और पहाडों पर लिए फिरेगा ताकि फितनों से महफूज़ रहे." (बुखारी १९)


* मुहम्मद गालिबन अपने फ़ितना साज़ी के अंजाम का एहसास जुर्म कर रहे हैं. वैसे मुहम्मद को बकरियां बहुत पसंद थीं. वह अक्सर उनकी आराम गाहों (बाड़ों) में नमाज़ें भी अदा कर लिया करते थे. नतीजतन उनके लिबास मैले, गंदे होते और कपडों से बुक्राहिंद आती. पाकिस्तान में पिछले दिनों ये सच्चाई किसी ईसाई के मुँह से निकल गई थी कि गरीब को फाँसी के फंदे पर झूलना पड़ा. जी हाँ इस्लाम में कडुवे बोलने की सज़ा मौत है. मीठे मीठे झूट अल्लाह को बहुत पसंद हैं.योरोप और अमेरिका के बदौलत तेल और गैस के ख़जाने अगर अरबों के हाथ न लगे हुए होते तो आज भी ये बकरियां ही चराते फिरते. अफगानस्तान जैसे कई खित्ते दुन्याए इसलाम ने बर क़रार कर रखे हैं जहाँ जानवर ही मुसलमानों को पल पोस रहे हैं. इन इस्लामी चरागाहों की बकरों की माँ देखिए कब तक अपने बकरों की खैर मनाएँगी.मुसलमान गौर करें कि उनके रसूल की पेशीन गोई कितनी नाकबत अंदेश और लग्व थी.

अली मौला की तक़रीर

अली मौला फ़रमाते हैं "क़सम इस की जिसने दाना चीरा और जान बनाई, रसूल अल्लाह ने मुझ से अहद किया था, नहीं रक्खेगा मुहब्बत मुझ से वह मोमिन नहीं, नहीं रक्खेगा जो मुझ से जो दुश्मनी वह मुनाफिक नहीं."
(सहीह मुस्लिम - - - किताबुल ईमान)
एक हदीस से ही ये बात इल्म में आत्ती है कि अली को जंगे खैबर में जब दो ऊँट ग़नीमत में मिले थे तो उन्हों ने मंसूबा बांधा था कि घास खोद कर इन पर लाया करेंगे, बाज़ार में उसे बेच कर कुछ पैसे पसंदाज़ करेंगे ताकि क़र्ज़ हसना में बाकी फ़त्मा का वलीमा कर सकें. मगर रक्कासा के बहकाने में आ कर शराबी हम्ज़ा ने उनके दोनों ऊंटों का क़त्ल कर के उन के अरमानों का खून कर दिया. ऐसी ही अली की शख्सियत हदीस और तारीख के सफ़हात पर मिलती है, कभी वह किसी बस्ती को उसके बाशिंदों समेत ज़िन्दा जला देते हैं तो कभी अपने मोहसिन मुहम्मद के बद तरीन दुश्मन अबू जेहल की बेटी के साथ शादी रचाने चले जाते हैं, जो भी हो ये तो पक्का है कि बचपन से ही इनका क़लम और किताब से कोई ख़ास वास्ता नहीं रहा है, आगे खुद वह इस बात का एतराफ करेंगे. ज़हानत तो दूर दूर तक इन में छू तक नहीं गई थी जो इस हदीस कि इबारत से ही ज़ाहिर है और उनकी टुच्ची तबा भी. हैरत होती है आज उनकी इरशादात और फरमूदत की किताबों की अलमारियां की अलमारियां सजी हुई देख कर. चौदह सौ सालों से हजारों बे ज़मीर ओलिमा अली को काबिल तरीन हस्ती और साहिबे फ़िक्र बनाने पर तुले हुए हैं.

मज़ा चक्खा

अब्बास बिन अब्दुल मुतलिब कहते हैं मुहम्मद ने कहा "ईमान का मज़ा चक्खा उसने जो राज़ी हो गया ख़ुदा की खुदाई पर, इसलाम के दीन होने पर और मुहम्मद के पैग़म्बर होने पर"

(सहीह मुस्लिम - - - किताबुल ईमान)

* वाकई कुछ सदियाँ ज़ुल्म करने में मज़ा आया, फिर झूट को जीने में और अब झूट की फसल काटने में मज़ा आ रहा है. हर मुस्लमान छटपटा रहा है कि क्या करे ? कहाँ जाए ? ओलिमाए दीने बातिल इन्हें अपनी तरफ बुला रहे हैं " इधर आओ! मेरे पेट की दोज़ख अभी नहीं भरी, मुहम्मदी शैतान तो मै ही हूँ अल्लाह का शैतान तो कोई है ही नहीं. मै तुम को गुमराह करता रहूँगा, आओ! नमाजों के लिए अपने सरों को पेश करो, तुम्हारे सरों से ही हम शैतानों का वजूद है. जब तक तुम में से एक सफ भी नमाजों के लिए बची रहेगी, हम बचे रहेंगे. ईसा की बात याद आती है कहता है "कोई अच्छा पेड़ नहीं जो निकम्मा फल लाए, और न ही कोई निकम्मा पेड़ है जो अच्छा फल लाए. एक पेड़ अपने फल से ही पहचाना जाता है." मुहम्मद की पैगम्बरी का एक फल चौथाई दुन्या कि ज़रखेजी को पामाल किए हुए है.एक बड़ी आबादी आसमानी खेतियाँ जोर रही है.

आप कि क्या बात है

" एक बार लोगों ने मुहम्मद से सवाल क्या कि हम लोग आप की तरह तो हैं नहीं कि थोडी इबादत करें या ज़्यादः बख्श दिए जाएँगे, क्यों कि आप के तो अगले पिछले सब गुनाह मुआफ़ हैं. यह सुन कर मुहम्मद गुस्से से तमतमा उट्ठे और कहा मैं तुम से ज़्यादा अल्लाह से डरने वाला और उसे जानने वाला हूँ ." (बुखारी २०)


कुरआन में मुहम्मद ने कई बार शेखी बघारी है कि उनके अगले और पिछले सब गुनाह अल्लाह ने मुआफ़ किए. मुहम्मद ने अपनी जिंदगी में मनमाने गुनाह किए है, इस को लेकर जब इन का ज़मीर इन को झिनझोड़ता है तो अवाम के सामने अपने गुनाहों पर खाक डालने के लिए खुद पर वह आयते कुरानी नाज़िल कर लिया करते हैं. इस पर ताने के तौर पर लोग जब उन की आयतें उन के मुँह पर मरते हैं तो वह जलबला उठते हैं. मुसलमान मस्लेह्तन उनको बर्दाश्त करते हैं, इस लिए कि माले गनीमत की बरकतों से वह महरूम और उनके अज़ाब से वह पामाल नहीं होना चाहते थे. उस वक़त अरब में रोज़ी एक अहेम मसअला थी. लोग चुटकियाँ ले लेते और अल्लाह के नबी आँय, बाँय ,शाँय बकने लग जाते.



जिब्रील अलैह हिस्सलाम के बाल ओ पर

एक हदीस में मुहम्मद कहते हैं "जिब्रील अलैह हिस्सलाम के छ सौ बाजू थे."

(मार्फ़त अब्दुल्ला बिन मसूद)
दूसरी में कहते हैं "इनके छ सौ पंख थे "

(मार्फ़त सुलेमान शीताबी)
यह भी कहते हैं कि "इंसान की तरह वह हट्टे कटते थे" (सहीह मुस्लिम)
*फारसी कहावत है "दरोग गो रा याद दाश्त नदारद"


इस्लामी नौ टंकी में जिब्रील का किरदार ताश के पत्तों में जोकर की तरह है, जहाँ ज़रुरत हो जिब्रील को नाजिल किया जा सकता है. चाहे मुहम्मद को निकाह में आसमान पर गवाह की ज़रुरत हो, चाहे वहियाँ ढुलवाने के लिए आसमानी मजदूर की या सफ़र मेराज के लिए किसी हम रकाब की जिब्रील अलैह हिस्सलाम नाजिल हैं .
मुहम्मद ने इस यहूदी फ़रिश्ते गिब्रील का भरपूर इस्तेमाल किया है. उनकी याद दाश्त में खलल हो या इस्लामी आलिमों की कज अदाई. सवाल उठता है कि आज इन बातों पर यकीन कर के हम जी रहे हैं या मर रहे है.

वज़ू में एडी ज़रूर भिगोएँ

हदीस है कि " मुहम्मद ने देखा लोग नमाज़ पढने के लिए वजू कर रहर है और अपनी एडियाँ चीर रहे हैं, कहा अगर एडियाँ खुश्क रह गईं तो दोज़ख में जलाई जाएंगी और इन के लिए दोज़ख में तबाही है" (बुखारी ५५)


नमाजियों! देखो कि तुम्हारे लिए चलते फिरते, उठते बैठते, वजू करते, नमाज़ पढ़ते, दोज़ख धरी हुई है, बस ज़रा सी चूक हो जाए, वह भी बे ख्याली में, जहन्नम रसीदा कर दिए जाओगे.
एक नव मुस्लिम तैमूरी बादशाह ने अपने दरबारी ओलिमा को तलब किया और उन से दरयाफ्त किया कि क्या कोई सूरत है कि मुझे इस पंज वक्ता नमाजों से कुछ राहत मिले? ओलिमा सर जोड़ कर देर तक आपस में कुछ खुसुर फुसुर करते रहे फिर उन में से एक बोला हुज़ूर पर हुकूमत की निज़ामत की जिम्मेदरियाँ हैं सो रात देर तक जागना पड़ता है, लिहाज़ा फ़जिर की नमाज़ अल्लाह मुआफ़ फरमाएगा.
कुछ रोज़ बाद बादशाह ने फिर दरबार तलब किया और ओलिमा से और भी नामाजोँ में राहत चाही. दरबारी आलिमों ने अपनी रोज़ी रोटी का ख्याल रखते हुए बादशाह को जोहर और इशा, दो वक्तों की राहत और दे दी.
थोड़े दिनों बाद ही बादशाह ने एक बार फिर ओलिमा को तलब किया और उन से कहा, देखो कि और क्या अल्लाह से गुंजाईश है? आलिमों ने शाम की दो असिर और मगरिब की मुख्तसर सी नमाजें बादशाह के लिए छोड़ी थीं, अब क्या करें? दरबार में सन्नाटा छा गया क्यों की आलिमों को ऊपर से वार्निंग मिल चुकी थी, बहुत देर के बाद एक आलिम उन में से खडा हुवा और बोला हुज़ूर आप को नमाजों से मुकम्मल आज़ादी मिल सकती है, बस ज़रा सा दीन बदल दें. यानि तरके इसलाम करके किसी और दीन को कुबूल कर लें.
मैं आप को कभी ऐसी नामाकूल राय नहीं दूगा. दीन बदल देने का मतलब है चूहेदान का बदलना, यानी एक चूहेदान को छोड़ कर दूसरे चूहेदान को अपनाना. ज़रुरत है आप को इन चूहेदानों से आज़ादी. आप मुहम्मद के बनाए हुए चूहेदान के चूहे हैं, इस से आजाद होकर फ़कत इंसान बन जाएँ, न कि ईसा, मूसा, बुद्धा या किसी शुद्धा के चूहेदान में जाकर उस के कैदी बनें. आप मुहम्मद से आजाद होकर सिर्फ इन्सान बनें, जिसका कोई पैगम्बर, कोई पर्वर्तक नहीं. अपना ईमान मुस्तह्किम करें, जीने का मज़ा आ जाएगा.

आज बारा वफात है,बर्रे सगीर के बड़े बड़े अखबारों,रिसालों और इश्तेहारों में मुहम्मद के शान में कसीदे लिखे गए होंगे. नात गोइयाँ हो रही होंगी,लाखों जबीनें सजदा रेज़ी कर रही होंगी, अपने आकाए नामदार की बार गाहों में, ऐसे में मोमिम मुतलक़ के तसव्वुर से भी आप लरज़ सकते हैं मगर ठहरिए, अपने आप को समेटिए, सदाक़त कि मामूली सी मुट्ठी में मजबूती के साथ क़ैद कीजिए फिर गौर कीजिए कि आप से दस गुना लोग आप की ही तरह कुम्भ अशनान करने अपने पाप धोने के लिए जाते हैं, क्या तादाद के हिसाब से ईमान हक बजनिब होता है ?आप से सौ दर्जा बेहतर रामायण, महा भारत, वेद, पुराण मनु स्मिर्ती हिदुओं के पास हैं, क्या वह मुकाबले मे आप से बेहतर नहीं. ये बहस बहुत तवील है. इस में जाने का वक्त नहीं. सच्चाई ये है कि मुसलमान की हाकीकात खुद आप के सामने है, जो इस्लाम कि तरफदारी कर रहे हैं, उनका सीधा इस से कुछ न कुछ माली फायदा है या फिर गाफिल और भोले भले अवाम हैं. इसलाम इस वक्त इन पर एक अजाब है, यही ईमानदारी कि बात है.