Monday, March 30, 2009
Saturday, March 28, 2009
Thursday, March 12, 2009
झूट का एलान है - - - ये अज़ान
मुसलामानों क़ौम की अक़ल पर हैरत होती है कि वह अपने किसी अमल पर दोबारा एक बार नज़र नहीं डालती कि वह अपने पूर्वजों के पद चिन्हों पर चल कर किस दिशा में जा रही है. अज़ान की सुब्ह से शाम तक की आवाज़ें सिर्फ मुस्लमान ही नहीं सारी दुन्या सुनती है और उस से आशना है, दुन्या में लाखों मस्जिदें होंगी, उन पर लाखों मुअज़्ज़िन(अजान देने वाले) होंगे, दिन में पॉँच बार कम से कम ये बावाज़ बुलंद दोहराई जाती है. अज़ान नमाजों से पहले भी नमाज़ी, नमाज़ की नियत बांधने से पेश्तर पढता है. गरज हर मुअज़्ज़िन जितनी बार अज़ान देता है उसके चार गुना बार एलानिया झूट चीख चीख कर बोलता है और हर नमाज़ी जितनी बार नमाज़ की नियत बाँधता है उसके चार गुना बार बुदबुदाते हुए झूट बोलता है जो अनजाने में हर नमाज़ी पढता है.
देखिए अज़ान में सबसे बड़ा पहला झूट _
१-अश हदो अन्ना मुहम्मदुर रसूलिल्लाह
गवाही का मतलब क्या होता है ? कोई अदना मुस्लमान से लेकर आलिम, फ़ज़िल, दानिशवर, मुस्लिम बुद्धि जीवी बतलाएं कि एक साधारण मस्जिद का मुलाज़िम किस अख्तियार को लेकर या कौन से सुबूत उसके पास हैं कि वह अल्लाह और मुहम्मादुर्रूसूलिल्लाह का चश्म दीद गवाह बना हुवा है? क्या उसने सदियों पहले अल्लाह को देखा था? और क्या उसे मुहम्मद के साथ देखा था?, सिर्फ देखा ही नहीं, बल्कि अल्लाह को इस अमल के साथ देख था कि वह मुहम्मद को रसूल बना रहा है? क्या अल्लाह की भाषा उस के समझ में आई थी? क्या हर अज़ान देने वाले की उम्र १५०० साल के आस पास की है, जब कि मुहम्मद को ये नबूवत मिली थी.
याद रखें गवाही का मतलब शहादत होता है, अकीदत नहीं, आस्था नहीं, यकीन नहीं, कोई अय्यार आलिम शहादत से चश्म पोशी नहीं कर सकता. गवाही के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता. न ही राम चन्द्र परम हंस की तरह झूटी गवाही दे सकता है कि जैसा उसने गवाही के संसार में एक मिथ्य की नज़ीर क़ायम किया "गीता पर हाथ रख कर कहा कि उसने राम लला को बाबरी मस्जिद में जन्मते देखा"
इसलाम आलमी मज़हब और उसकी बुनियाद इतनी खोखली? हैरत है जेहालत के मेराज पर और इस क़ौम के जुमूद पर.
थोडा सा अज़ान का परिचय दे दूं तो आगे बढूँ - - -
"जब महाजरीन मक्का से मदीना आए, तो एक रोज़ इकठ्ठा होके सलाह मशविरा किया कि नमाज़ियों को इत्तेला करने के लिए कि नमाज़ का वक्त हो गया है, क्या तरीक़ए कार अख्तियार किया जाए. सभी ने अपनी अपनी राय पेश कीं, किसी ने राय दी कि यहूद की तर्ज़ पर सींग बजाई जाए, किसी ने अंसार की तर्ज़ पर नाक़ूश (शंख) फूकने की राए दी. किसी ने कुछ किसी ने कुछ. मुहम्मद सब की राय को सुनते रहे मगर उनको उमर की राय पसंद आई कि अज़ान के बोल बनाए जाएँ, जिस को बाआवाज़ बुलंद पुकारा जाए. मुहम्मद ने बिलाल को हुक्म दिया उठो बिलाल अज़ान दो." (बुखारी ३५३)
अज़ान चन्द लोगों के बीच किया गया एक फैसला था जिस में मुहम्मद के जेहनी गुलामों की सियासी टोली थी. अनपढों के बनाए हुए बोल थे महज़ , यहाँ तक कि मुहम्मद के मफरूज़ा इल्हामी वहियाँ भी न थीं जो बदली न जा सकतीं. हाँ उमर की अज़ान होने के बाईस बाद में शियों ने इस में कुछ रद्दो बदल कर दिया मगर इसे और भी दकयानूसी बना दिया. अज़ान मुसलमानों में इस क़द्र मुक़द्दस है कि बच्चे के पैदा होते ही इस झूट को उस के कानों में फूँक दिया जाता है.
अब आगे देखिए कि पंचों का ये फैसला मुहम्मद अपनी फरमूदत में कैसे ढालते हैं - - -
" मुहम्मद कहते हैं कि जब नमाज़ के लिए अज़ान दी जाती है तो शैतान पादता हुवा इतनी दूर भागता है कि जहाँ तक अज़ान की आवाज़ जाती है. जब अज़ान ख़त्म हो जाती है तो फिर वापस आ जाता है और तकबीर नमाज़ बा जमाअत के बाद फिर भाग जाता है. उसके बाद फिर आ जाता है और नमाजियों को वस्वसे में डाल देता है ----
(बुखारी ३५५)
इस झूटी गवाही की झूट अज़ान की इस तरह की बहुत सी बरकतों की एक तवील फेहरिस्त आप को मिलेगी.
२-अश हदोअन ला इलाहा इल्लिल्लाह
यहाँ पर भी गवाही तो बहरहाल काबिले एतराज़ है चाहे इस्लामी अल्लाह हो, या आलमी अल्लाह हो या गाड हो. लायके इबादत भी मुनासिब नहीं. काबिले सताइश तो हो सकता है. कोई कुदरत अपनी इबादत की न ज़रुरत रखती है न ही उसकी ऐसी समझ बूझ होती है. उसकी तलाश में खुद उससे जूझते रहना उसकी दावत है और यही इन्सान के हक में है.
३- अल्ला हुअक्बर अल्लाह हुअक्बर
बहुत बड़ी चीजें तभी होती हैं जब कोई दूसरी चीज़ उसके मुकाबले में छोटी हो. कुरआन का एलान है कि अल्लाह सिर्फ़ एक है तो उसका अज़ानी एलान बेमानी है कि अल्ला बहुत बड़ा है. मगर चूंकि इस्लाम एक उम्मी की रक्खी हुई बुन्याद है, इस लिए इस मे ऐसी खामियां रहना फितरी बात है. सच्चाई ये है की मुहम्मद ने एक तरफ़ दूसरा खुदा शैतान को बनाया है तो दूसरी तरफ ३६० काबा के बुतों को तोड़ कर एक बड़े अल्लाह के बाद, उसके रसूल बन कर खुद छोटे अल्लाह बन गए हैं. कलिमाए शहादत इसी बात की तिकड़म है. शैतन को छोटा अल्लाह उन खुदाई ताक़तों से नफरत के लिए जो कहीं पर कुछ चमत्कार रखती हों मगर यहाँ पर भी उम्मी मुहम्मद से भूल चूक हुई है जिस से शैतान बाज़ी मार ले गया है. कुरआन में शैतान को शैतानुर रज़ीम बार बार कहा गया है यानी शैतान अज़मत वाला(महा महिम) इसके मुक़ाबला में अल्लाह सिर्फ रहमान और रहीम. मुक़ाबला शुरू होता है कुरआन की कोई भी सूरह पढने से पहले, देखें - - -
आऊज़ो बिल्लाहे मिनस शैतानुर रजीम, बिस्मिल्ला हिरर रहमा निर रहीम.
नाम पहले शैतान का आता है और उसकी अज़मत के साथ, कारीगर ओलिमा रफू गरी करते रहें.
४- हैइया लस सला, हैइया लस सला.
नमाजों में यही कुरानी इबारतें आंख मूँद कर पढ़ी जाटी हैं जो हर्फे गलत में आप पढ़ रहे हैं. मनन, मगन , चिंतन, ध्यान या नानक की तरह यादे इलाही में ग़र्क़ हो जाना नमाज़ नहीं है, कुरानी आयातों के पाठ्य में ज़ेर ज़बर का फर्क हुवा तो नमाज़ अल्लाह ताला तुम्हारे मुँह पर वापस मार देगा, बोर्ड इक्जाम की कापियों की तरह चेक होती है नमाजें. मैं इन नमाजों को पंज वक्ता खुराफ़ात कहता हूँ. जोश मलीहाबादी कहते हैं - - -
जिस को अल्लाह हिमाक़त की सज़ा देता है,
उसको बे रूह नमाज़ों में लगा देता है.
५- हैइया लल फला, हैइया लल फला
नमाज़ पढना किसी भी हालत में भलाई का काम नहीं कहा जा सकता. इंसानी या मख्लूकी फलाह ओ बहबूद के काम ही भलाई के काम कहे जा सकते हैं. मस्जिद में दाखला ही इस वक़्त सोच समझ कर करने की ज़रुरत है. नव जवानो को खास कर आगाही है कि वह मुल्लाओं के शिकार न बन जाए, मुसलामानों में तरके मस्जिद कि तहरीक चलनी चाहिए जैसे कि तरके मीलादुन नबी खुद बखुद वजूद में आगे है.
Saturday, March 7, 2009
हदीसी हादसे
हलीमा दाई की बकरियों को चराने वाले
मुहम्मद ने कहा "ऐसा ज़माना आने वाला है कि लोगों का बेहतर माल बकरियां होंगी. अपना दीन बचाने की ग़रज़ से वह उन्हें सब्ज़ा ज़ार और पहाडों पर लिए फिरेगा ताकि फितनों से महफूज़ रहे." (बुखारी १९)
* मुहम्मद गालिबन अपने फ़ितना साज़ी के अंजाम का एहसास जुर्म कर रहे हैं. वैसे मुहम्मद को बकरियां बहुत पसंद थीं. वह अक्सर उनकी आराम गाहों (बाड़ों) में नमाज़ें भी अदा कर लिया करते थे. नतीजतन उनके लिबास मैले, गंदे होते और कपडों से बुक्राहिंद आती. पाकिस्तान में पिछले दिनों ये सच्चाई किसी ईसाई के मुँह से निकल गई थी कि गरीब को फाँसी के फंदे पर झूलना पड़ा. जी हाँ इस्लाम में कडुवे बोलने की सज़ा मौत है. मीठे मीठे झूट अल्लाह को बहुत पसंद हैं.योरोप और अमेरिका के बदौलत तेल और गैस के ख़जाने अगर अरबों के हाथ न लगे हुए होते तो आज भी ये बकरियां ही चराते फिरते. अफगानस्तान जैसे कई खित्ते दुन्याए इसलाम ने बर क़रार कर रखे हैं जहाँ जानवर ही मुसलमानों को पल पोस रहे हैं. इन इस्लामी चरागाहों की बकरों की माँ देखिए कब तक अपने बकरों की खैर मनाएँगी.मुसलमान गौर करें कि उनके रसूल की पेशीन गोई कितनी नाकबत अंदेश और लग्व थी.
अली मौला की तक़रीर
अली मौला फ़रमाते हैं "क़सम इस की जिसने दाना चीरा और जान बनाई, रसूल अल्लाह ने मुझ से अहद किया था, नहीं रक्खेगा मुहब्बत मुझ से वह मोमिन नहीं, नहीं रक्खेगा जो मुझ से जो दुश्मनी वह मुनाफिक नहीं."
(सहीह मुस्लिम - - - किताबुल ईमान)
एक हदीस से ही ये बात इल्म में आत्ती है कि अली को जंगे खैबर में जब दो ऊँट ग़नीमत में मिले थे तो उन्हों ने मंसूबा बांधा था कि घास खोद कर इन पर लाया करेंगे, बाज़ार में उसे बेच कर कुछ पैसे पसंदाज़ करेंगे ताकि क़र्ज़ हसना में बाकी फ़त्मा का वलीमा कर सकें. मगर रक्कासा के बहकाने में आ कर शराबी हम्ज़ा ने उनके दोनों ऊंटों का क़त्ल कर के उन के अरमानों का खून कर दिया. ऐसी ही अली की शख्सियत हदीस और तारीख के सफ़हात पर मिलती है, कभी वह किसी बस्ती को उसके बाशिंदों समेत ज़िन्दा जला देते हैं तो कभी अपने मोहसिन मुहम्मद के बद तरीन दुश्मन अबू जेहल की बेटी के साथ शादी रचाने चले जाते हैं, जो भी हो ये तो पक्का है कि बचपन से ही इनका क़लम और किताब से कोई ख़ास वास्ता नहीं रहा है, आगे खुद वह इस बात का एतराफ करेंगे. ज़हानत तो दूर दूर तक इन में छू तक नहीं गई थी जो इस हदीस कि इबारत से ही ज़ाहिर है और उनकी टुच्ची तबा भी. हैरत होती है आज उनकी इरशादात और फरमूदत की किताबों की अलमारियां की अलमारियां सजी हुई देख कर. चौदह सौ सालों से हजारों बे ज़मीर ओलिमा अली को काबिल तरीन हस्ती और साहिबे फ़िक्र बनाने पर तुले हुए हैं.
मज़ा चक्खा
अब्बास बिन अब्दुल मुतलिब कहते हैं मुहम्मद ने कहा "ईमान का मज़ा चक्खा उसने जो राज़ी हो गया ख़ुदा की खुदाई पर, इसलाम के दीन होने पर और मुहम्मद के पैग़म्बर होने पर"
(सहीह मुस्लिम - - - किताबुल ईमान)
* वाकई कुछ सदियाँ ज़ुल्म करने में मज़ा आया, फिर झूट को जीने में और अब झूट की फसल काटने में मज़ा आ रहा है. हर मुस्लमान छटपटा रहा है कि क्या करे ? कहाँ जाए ? ओलिमाए दीने बातिल इन्हें अपनी तरफ बुला रहे हैं " इधर आओ! मेरे पेट की दोज़ख अभी नहीं भरी, मुहम्मदी शैतान तो मै ही हूँ अल्लाह का शैतान तो कोई है ही नहीं. मै तुम को गुमराह करता रहूँगा, आओ! नमाजों के लिए अपने सरों को पेश करो, तुम्हारे सरों से ही हम शैतानों का वजूद है. जब तक तुम में से एक सफ भी नमाजों के लिए बची रहेगी, हम बचे रहेंगे. ईसा की बात याद आती है कहता है "कोई अच्छा पेड़ नहीं जो निकम्मा फल लाए, और न ही कोई निकम्मा पेड़ है जो अच्छा फल लाए. एक पेड़ अपने फल से ही पहचाना जाता है." मुहम्मद की पैगम्बरी का एक फल चौथाई दुन्या कि ज़रखेजी को पामाल किए हुए है.एक बड़ी आबादी आसमानी खेतियाँ जोर रही है.
आप कि क्या बात है
" एक बार लोगों ने मुहम्मद से सवाल क्या कि हम लोग आप की तरह तो हैं नहीं कि थोडी इबादत करें या ज़्यादः बख्श दिए जाएँगे, क्यों कि आप के तो अगले पिछले सब गुनाह मुआफ़ हैं. यह सुन कर मुहम्मद गुस्से से तमतमा उट्ठे और कहा मैं तुम से ज़्यादा अल्लाह से डरने वाला और उसे जानने वाला हूँ ." (बुखारी २०)
कुरआन में मुहम्मद ने कई बार शेखी बघारी है कि उनके अगले और पिछले सब गुनाह अल्लाह ने मुआफ़ किए. मुहम्मद ने अपनी जिंदगी में मनमाने गुनाह किए है, इस को लेकर जब इन का ज़मीर इन को झिनझोड़ता है तो अवाम के सामने अपने गुनाहों पर खाक डालने के लिए खुद पर वह आयते कुरानी नाज़िल कर लिया करते हैं. इस पर ताने के तौर पर लोग जब उन की आयतें उन के मुँह पर मरते हैं तो वह जलबला उठते हैं. मुसलमान मस्लेह्तन उनको बर्दाश्त करते हैं, इस लिए कि माले गनीमत की बरकतों से वह महरूम और उनके अज़ाब से वह पामाल नहीं होना चाहते थे. उस वक़त अरब में रोज़ी एक अहेम मसअला थी. लोग चुटकियाँ ले लेते और अल्लाह के नबी आँय, बाँय ,शाँय बकने लग जाते.
जिब्रील अलैह हिस्सलाम के बाल ओ पर
एक हदीस में मुहम्मद कहते हैं "जिब्रील अलैह हिस्सलाम के छ सौ बाजू थे."
(मार्फ़त अब्दुल्ला बिन मसूद)
दूसरी में कहते हैं "इनके छ सौ पंख थे "
(मार्फ़त सुलेमान शीताबी)
यह भी कहते हैं कि "इंसान की तरह वह हट्टे कटते थे" (सहीह मुस्लिम)
*फारसी कहावत है "दरोग गो रा याद दाश्त नदारद"
इस्लामी नौ टंकी में जिब्रील का किरदार ताश के पत्तों में जोकर की तरह है, जहाँ ज़रुरत हो जिब्रील को नाजिल किया जा सकता है. चाहे मुहम्मद को निकाह में आसमान पर गवाह की ज़रुरत हो, चाहे वहियाँ ढुलवाने के लिए आसमानी मजदूर की या सफ़र मेराज के लिए किसी हम रकाब की जिब्रील अलैह हिस्सलाम नाजिल हैं .
मुहम्मद ने इस यहूदी फ़रिश्ते गिब्रील का भरपूर इस्तेमाल किया है. उनकी याद दाश्त में खलल हो या इस्लामी आलिमों की कज अदाई. सवाल उठता है कि आज इन बातों पर यकीन कर के हम जी रहे हैं या मर रहे है.
वज़ू में एडी ज़रूर भिगोएँ
हदीस है कि " मुहम्मद ने देखा लोग नमाज़ पढने के लिए वजू कर रहर है और अपनी एडियाँ चीर रहे हैं, कहा अगर एडियाँ खुश्क रह गईं तो दोज़ख में जलाई जाएंगी और इन के लिए दोज़ख में तबाही है" (बुखारी ५५)
नमाजियों! देखो कि तुम्हारे लिए चलते फिरते, उठते बैठते, वजू करते, नमाज़ पढ़ते, दोज़ख धरी हुई है, बस ज़रा सी चूक हो जाए, वह भी बे ख्याली में, जहन्नम रसीदा कर दिए जाओगे.
एक नव मुस्लिम तैमूरी बादशाह ने अपने दरबारी ओलिमा को तलब किया और उन से दरयाफ्त किया कि क्या कोई सूरत है कि मुझे इस पंज वक्ता नमाजों से कुछ राहत मिले? ओलिमा सर जोड़ कर देर तक आपस में कुछ खुसुर फुसुर करते रहे फिर उन में से एक बोला हुज़ूर पर हुकूमत की निज़ामत की जिम्मेदरियाँ हैं सो रात देर तक जागना पड़ता है, लिहाज़ा फ़जिर की नमाज़ अल्लाह मुआफ़ फरमाएगा.
कुछ रोज़ बाद बादशाह ने फिर दरबार तलब किया और ओलिमा से और भी नामाजोँ में राहत चाही. दरबारी आलिमों ने अपनी रोज़ी रोटी का ख्याल रखते हुए बादशाह को जोहर और इशा, दो वक्तों की राहत और दे दी.
थोड़े दिनों बाद ही बादशाह ने एक बार फिर ओलिमा को तलब किया और उन से कहा, देखो कि और क्या अल्लाह से गुंजाईश है? आलिमों ने शाम की दो असिर और मगरिब की मुख्तसर सी नमाजें बादशाह के लिए छोड़ी थीं, अब क्या करें? दरबार में सन्नाटा छा गया क्यों की आलिमों को ऊपर से वार्निंग मिल चुकी थी, बहुत देर के बाद एक आलिम उन में से खडा हुवा और बोला हुज़ूर आप को नमाजों से मुकम्मल आज़ादी मिल सकती है, बस ज़रा सा दीन बदल दें. यानि तरके इसलाम करके किसी और दीन को कुबूल कर लें.
मैं आप को कभी ऐसी नामाकूल राय नहीं दूगा. दीन बदल देने का मतलब है चूहेदान का बदलना, यानी एक चूहेदान को छोड़ कर दूसरे चूहेदान को अपनाना. ज़रुरत है आप को इन चूहेदानों से आज़ादी. आप मुहम्मद के बनाए हुए चूहेदान के चूहे हैं, इस से आजाद होकर फ़कत इंसान बन जाएँ, न कि ईसा, मूसा, बुद्धा या किसी शुद्धा के चूहेदान में जाकर उस के कैदी बनें. आप मुहम्मद से आजाद होकर सिर्फ इन्सान बनें, जिसका कोई पैगम्बर, कोई पर्वर्तक नहीं. अपना ईमान मुस्तह्किम करें, जीने का मज़ा आ जाएगा.
आज बारा वफात है,बर्रे सगीर के बड़े बड़े अखबारों,रिसालों और इश्तेहारों में मुहम्मद के शान में कसीदे लिखे गए होंगे. नात गोइयाँ हो रही होंगी,लाखों जबीनें सजदा रेज़ी कर रही होंगी, अपने आकाए नामदार की बार गाहों में, ऐसे में मोमिम मुतलक़ के तसव्वुर से भी आप लरज़ सकते हैं मगर ठहरिए, अपने आप को समेटिए, सदाक़त कि मामूली सी मुट्ठी में मजबूती के साथ क़ैद कीजिए फिर गौर कीजिए कि आप से दस गुना लोग आप की ही तरह कुम्भ अशनान करने अपने पाप धोने के लिए जाते हैं, क्या तादाद के हिसाब से ईमान हक बजनिब होता है ?आप से सौ दर्जा बेहतर रामायण, महा भारत, वेद, पुराण मनु स्मिर्ती हिदुओं के पास हैं, क्या वह मुकाबले मे आप से बेहतर नहीं. ये बहस बहुत तवील है. इस में जाने का वक्त नहीं. सच्चाई ये है कि मुसलमान की हाकीकात खुद आप के सामने है, जो इस्लाम कि तरफदारी कर रहे हैं, उनका सीधा इस से कुछ न कुछ माली फायदा है या फिर गाफिल और भोले भले अवाम हैं. इसलाम इस वक्त इन पर एक अजाब है, यही ईमानदारी कि बात है.
Friday, February 27, 2009
हर्फ़े ग़लत (क़ुरआनी हक़ीकतें)
मूसा को मिली उसके इलोही की दस हिदायतें आज क्या बिसात रखती हैं, हाँ मगर वक़्त आ गया है कि आज हम उनको बौना साबित कर रहे हैं. मूसा की उम्मत यहूद इल्म जदीद के हर शोबे में आसमान से तारे तोड़ रही है और उम्मते मुहम्मदी आसमान पर खाबों की जन्नत और दोज़ख तामीर कर रही है. इसके आधे सर फरोश तरक्की याफ़्ता कौमों के छोड़े हुए हतियार से खुद मुसलमानों पर निशाना साध रहे हैं और आधे सर फरोश इल्मी लियाक़त से दरोग फरोशी कर रहे हैं.
" दीन में ज़बरदस्ती नहीं."
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 256)
(सूरहह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 259)
इस सूरह में अल्लाह ने इसी क़िस्म की तीन मिसालें और दी हैं जिन से न कोई नसीहत मिलती है, न उसमें कोई दानाई है, पढ़ कर खिस्याहट अलग होती है. अंदाजे बयान बचकाना है, बेज़ार करता है, अज़ीयत पसंद हज़रात चाहें तो कुरआन उठा कर आयत २६१ देखें. सवाल उठता है हम ऐसी बातें वास्ते सवाब पढ़ते हैं? दिन ओ रात इन्हें दोहराते हैं, क्या अनजाने में हम पागल पन की हरकत नहीं करते ? हाँ! अगर हम इसको अपनी जबान में बआवाज़ बुलंद दोहराते रहें. सुनने वाले यकीनन हमें पागल कहने लगेंगे और इन्हें छोडें, कुछ दिनों बाद हम खुद अपने आप को पागल महसूस करने लगेंगे. आम तौर पर मुसलमान इसी मरज़ का शिकार है जिस की गवाह इस की मौजूदा तस्वीर है. वह अपने मुहम्मदी अल्लाह का हुक्म मान कर ही पागल तालिबान बन चुका है.
.".(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 261)
एक मिसाल अल्लाह की और झेलिए- - -
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 266)
" और जो सूद का बकाया है उसको छोड़ दो, अगर तुम ईमान वाले हो और अगर इस पर अमल न करोगे तो इश्तहार सुन लो अल्लाह की तरफ से कि जंग का - - - और इस के रसूल कि तरफ से. और अगर तौबा कर लो गे तो तुम्हारे अस्ल अमवाल मिल जाएँगे. न तुम किसी पर ज़ुल्म कर पाओगे, न कोई तुम पर ज़ुल्म कर पाएगा."
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 279)
एक अच्छी बात निकली मुहम्मद के मुँह से पहली बार
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 283)
यानि दो औरत=एक मर्द
" कुरान में कीडे निकलना भर मेरा मकसद नहीं है बहुत सी अच्छी बातें हैं, इस पर मेरी नज़र क्यूँ नहीं जाती?" अक्सर ऐसे सवाल आप की नज़र के सामने मेरे खिलाफ कौधते होंगे. बहुत सी अच्छी बातें, बहुत ही पहले कही गई हैं, एक से एक अज़ीम हस्तियां और नज़रियात इसलाम से पहले इस ज़मीन पर आ चुकी हैं जिसे कि कुरानी अल्लाह तसव्वुर भी नहीं कर सकता. अच्छी और सच्ची बातें फितरी होती हैं जिनहें आलमीं सचचाइयाँ भी कह सकते हैं. कुरान में कोई एक बात भी इसकी अपनी सच्चाई या इन्फरादी सदाक़त नहीं है. हजारों बकवास और झूट के बीच अगर किसी का कोई सच आ गया हो तो उसको कुरान का नहीं कहा जा सकता,"माँ बाप की खिदमत करो" अगर कुरान कहता है तो इसकी अमली मिसाल श्रवण कुमार इस्लाम से सदियों पहले क़ायम कर चुका है. मौलाना कूप मंदूकों का मुतलिआ कुरान तक सीमित है इस लिए उनको हर बात कुरान में नज़र आती है. यही हाल अशिक्षित मुसलमानों का है.
सूरह के आखीर में अल्लाह खुद अपने आप से दुआ मांगता है, बकौल मुहम्मद कुरआन अल्लाह का कलाम है, देखिए आयत में अल्लाह अपने सुपर अल्लाह के आगे कैसे ज़ारों कतार गिडगिडा रहा है. सदियों से अपने फ़ल्सफ़े को दोहरते दोहराते मुल्ला अल्ला को बहरूपिया बना चुका है, वह दुआ मांगते वक़्त बन्दा बन जाता है. मुहम्मद दुआ मांगते हैं तो एलानिया अल्लाह बन जाते हैं. उनके मुंह से निकली बात, चाहे उनके आल औलादों के खैर के लिए हो, चाहे सय्यादों के लिए बरकत की हो, कलाम इलाही बन कर निकलती है. आले इब्राहीमा व आला आले इब्राहिम इन्नका हमीदुं मजीद. यानि आले इब्राहीम गरज यहूदियों की खैर ओ बरकत की दुआ दुन्या का हर मुस्लमान मांगता है और वही यहूदी मुसलमानों के जानी दुश्मन बने हुए हैं . हम हिदुस्तानी मुसलमान यानि अरबियों कि भाष में हिंदी मिस्कीन अरबों के जेहनी गुलाम बने हुए हैं. अल्लाह को ज़ारों कतार रो रो कर दुआ मांगने वाले पसंद हैं. यह एक तरीके का नफ़्सियति ब्लेक मेल है. रंज ओ ग़म से भरा हुआ इंसान कहीं बैठ कर जी भर के रो ले तो उसे जो राहत मिलती है, अल्लाह उसे कैश करता है,
(सूरह अलबकर-२ तीसरा परा तिरकर रसूल आयत 284-286)
कुरान की एक बड़ी सूरह अलबकर अपनी २८६ आयातों के साथ तमाम हुई- जिसका लब्बो लुबाबा दर्ज जेल है - - -* शराब और जुवा में में बुराइयाँ हैं और अच्छइयां भी.
कुरानसार
* शराब और जुवा में बुराइयाँ हैं और अच्छइयां भी.
*खैर और खैरात में उतना ही खर्च करो जितना आसान हो.
* यतीमों के साथ मसलेहत की रिआयत रखना ज्यादा बेहतर है.
*काफिर औरतों के साथ शादी मत करो भले ही लौंडी के साथ कर लो.
*काफिर शौहर मत करो, उस से बेहतर गुलाम है.
*हैज़ एक गन्दी चीज़ है हैज़ के आलम में बीवियों से दूर रहो.
*मर्द का दर्जा औरत से बड़ा है.
*सिर्फ दो बार तलाक़ दिया है तो बीवी को अपना लो चाहे छोड़ दो.
*तलाक के बाद बीवी को दी हुई चीजें नहीं लेनी चाहिएं, मगर आपसी समझौता हो तो वापसी जायज़ है. जिसे दे कर औरत अपनी जन छुडा ले.
*तीसरे तलाक़ के बाद बीवी हराम है.
* हलाला के अमल के बाद ही पहली बीवी जायज़ होगी.
*माएँ अपनी औलाद को दो साल तक दूध पिलाएं तब तक बाप इनका ख़याल रखें. ये काम दाइयों से भी कराया जा सकता है.
*एत्काफ़ में बीवियों के पास नहीं जाना चाहिए.
*बेवाओं को शौहर के मौत के बाद चार महीना दस दिन निकाह के लिए रुकना चाहिए.
*बेवाओं को एक साल तक घर में पनाह देना चाहिए
*मुसलमानों को रमजान की शब् में जिमा हलाल हुवा.
मुसलमान आँख बंद कर के कहता है कुरान में निजाम हयात (जीवन-विधान) है ये बात मुल्ला, मौलवी उसके सामने इतना दोहराते हैं कि वह सोंच भी नहीं सकता कि ये उसकी जिंदगी के साथ सब से बड़ा झूट है. ऊपर की बातों में आप तलाश कीजिए कि कौन सी इन बेहूदा बातों का आज की ज़िन्दगी से वास्ता है. इसी तरह इनकी हर हर बात में झूट का अंबार रहता है. इनसे नजात दिलाना हर मोमिन का क़स्द होना चाहिए .
हर्फे गलत (सूरह अलबकर)
हज जैसे ज़ेह्नी तफ़रीह में कोई तखरीबी पहलू नज़र नहीं आता सिवाय इसके कि ये मुहम्मद का अपनी क़ौम के लिए एक मुआशी ख़्वाब है. आज समाज में हज हैसियत की नुमाइश एक फैशन भी बना हुवा है. दरमियाना तबका अपनी बचत पूंजी इस पर बरबाद कर के अपने बुढापे को ठन ठन गोपाल कर लेता है, जो अफ़सोस का मुक़ाम है. हज हर मुस्लमान पर एक तरह का उस के मुसलमान होने का क़र्ज़ है जो मुहम्मद ने अपनी क़ौम के लिए उस पर लादा है. उम्मी की सियासत को दुन्या की हर पिछ्ड़ी हुई कौम ढो रही है.
अल्लाह कहता है - - -
"क्या तुहारा ख़याल है कि जन्नत में दाखिल होगे, हाँलाकि तुम को अभी तक इन का सा कोई अजीब वक़ेआ अभी पेश नहीं आया है जो तुम से पहले गुज़रे हैं और उन पर ऐसी ऐसी सख्ती और तंगी वाके हुई है और उन को यहाँ तक जुन्बिशें हुई हैं कि पैग़म्बर तक और जो उन के साथ अहले ईमान थे बोल उठे कि अल्लाह की मदद कब आएगी. याद रखो कि अल्लाह की इमदाद बहुत नज़दीक है"
ईमान लाने वालों ने इस्लाम कुबूल करके मुसीबत मोल ले ली है. उन के लिए अल्लाह फ़रमाता है - - -
तालिबानी आयत
" जेहाद करना तुम पर फ़र्ज़ कर दिया गया है और वह तुम को गराँ है और यह बात मुमकिन है तुम किसी अम्र को गराँ समझो और वह तुम्हारे ख़ैर में हो और मुमकिन है तुम किसी अमर को मरगूब समझो और वह तुहारे हक में खराबी हो और अल्लाह सब जानने वाले हैं और तुम नहीं जानते,"
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २१४)
" लोग आप से शराब और कुमार (जुवा) के निस्बत दर्याफ़्त करते हैं, आप फरमा दीजिए कि दोनों में गुनाह की बड़ी बडी बातें भी हें और लोगों को फायदे भी हैं और गुनाह की बातें उनके फायदों से ज़्यादा बढी हुई हैं"
ज़हरीलi आयत
" निकाह मत करो काफिर औरतों के साथ जब तक कि वह मुसलमान न हो जाएँ और मुस्लमान चाहे लौंडी क्यूं न हो वह हजार दर्जा बेहतर है काफिर औरत से, गो वह तुम को अच्छी मालूम हो और औरतों को काफिर मर्दों के निकाह में मत दो, जब तक की वह मुसलमान न हो जाए, इस से बेहतर मुस्लमान गुलाम है"
कितनी झूटी बात है - - - मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना.
हम देखते हैं कि कुरआन की हर दूसरी आयत नफ़रत और बैर सिखला रही है.
" और लोग आप से हैज़ (मासिक-धर्म) का हुक्म पूछते हैं, आप फरमा दीजिए की गन्दी चीज़ है, तो हैज़ में तुम ओरतों से अलाह्दा रहा करो और इनसे कुर्बत मत किया करो, जब तक की वह पाक न हो जाएँ"
" तुम्हारी बीवियां तुम्हारी खेतियाँ हैं, सो अपनी खेतियों में जिस तरफ से होकर चाहो जाओ, और आइन्दा के लिए अपने लिए कुछ करते रहो और यकीन रक्खो कि तुम अल्लाह के सामने पेश होने वाले हो. और ऐसे ईमान वालों को खुश खबरी सुना दो"
* मुसलमानों में अवाम से ले कर बडे बड़े मौलाना तक कसमें बहुत खाते हैं. खुद अल्लाह कुरान में बिला वजे कसमे खाता दिखाई देता है. अल्लाह कहता है वह तुम को कभी नहीं पकडेगा तुम्हारी उस बेहूदा कसमों पर जो तुम रवा रवी में खा लेते हो मगर हाँ जिसे दिल से खा लेते हो, इस पर जवाब तलबी होगी (इसे इरादी कसमें भी कहा गया है) फिर भी फ़िक्र की बात नहीं, वह गफूर रुर रहीम है. इस सिलसिले में नीचे दोनों आयतें हैं आयत २२६ के मुताबिक औरत से चार माह तक जिंसी राबता न रखने की अगर क़सम खा लो और उसपर कायम रहो तो तलाक यक लख्त फैसल होगा और इस बीच अगर मन बदल जाए या जिंसी बे क़रारी में वस्ल की नोबत आ जाए तो अल्लाह इस क़सम की जवाब तलबी नहीं करेगा. ये आयत का मुसबत पहलू है.
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २२६ )
" जो लोग क़सम खा बैठे हैं अपनी बीवियों से, उन को चार महीने की मोहलत है, सो अगर ये लोग रुजू कर लें तब तो अल्लाह ताला मुआफ कर देंगे और अगर छोड़ ही देने का पक्का इरादा कर लिया है तो अल्लाह ताला जानने और सुनने वाले हैं."
मुस्लिम समाज में औरतें हमेशा पामाल रही हैं आज भी ज़ुल्म का शिकार हैं. मुश्तरका माहोल के तुफैल में कहीं कहीं इनको राहत मिली हुई है जहाँ तालीम ने अपनी बरकत बख्शी है. देखिए तलाक़ के कुछ इस तरह गैर वाज़ह फ़रमाने मुहम्मदी - - -
" तलाक़ दी हुई औरतें रोक रखें अपने आप को तीन हैज़ तक और इन औरतों को यह बात हलाल नहीं कि अल्लाह ने इन के रहेम में जो पैदा किया हो उसे पोशीदा रखें और औरतों के शौहर उन्हें फिर लौटा लेने का हक रखते हैं, बशर्ते ये की ये इस्लाह का क़स्द रखते हों. और औरतों के भी हुकूक हैं जव कि मिस्ल उन ही के हुकूक के हैं जो उन औरतों पर है, काएदे के मुवाफिक और मर्दों का औरतों के मुकाबले कुछ दर्जा बढा हुवा है."
" दो बार तलाक़ देने के बाद भी निकाह क़ायम रहता है मगर तीसरी बार तलाक़ देने के बाद तलाक़ मुकम्मल हो जाती है. और औरत से राबता कायम करना हराम हो जाता है, उस वक़्त तक कि औरत का किसी दूसरे मर्द से हलाला न हो जाए."
हरामा
मुसलामानों में रायज रुस्वाए ज़माना नाजेब्गी हलाला जिसको दर असल हरामा कहना मुनासिब होगा, वह तलाक़ दी हुई अपनी बीवी को दोबारा अपनाने का एक शर्म नाक तरीका है जिस के तहेत मत्लूका को किसी दूसरे मर्द के साथ निकाह करना होगा और उसके साथ हम बिस्तारी की शर्त लागू होगी फिर वह तलाक़ देगा, बाद इद्दत ख़त्म औरत का तिबारा निकाह अपने पहले शौहर के साथ होगा, तब जा कर दोनों इस्लामी दागे बे गैरती को ढोते हुए तमाम जिंदगी गुज़ारेंगे. अक्सर ऐसा भी होता है कि टेम्प्रेरी शौहर औरत को तलाक़ ही नहीं देता और वह नई मुसीबत में फंस जाती है, उधर शौहर ठगा सा रह जाता है. ज़रा तसव्वुर करें कि मामूली सी बात का इतना बड़ा बतंगड़, दो जिंदगियां और उनके मासूम बच्चे ताउम्र रुसवाई का बोझ ढोते रहें.
मुहम्मदी अल्लाह तलाक़ शुदा और बेवाओं के लिए अधूरे और बे तुके फ़रमान जारी करता है. बच्चों को दूध पिलाने कि मुद्दत और शरायत पर भी देर तक एलान करता है जो कि गैर ज़रूरी लगते हैं. एक तवील ला हासिल गुफ्तुगू जो कुरआन में बार बार दोहराई गई है जिस को इल्म का खज़ाना रखने वाले आलिम अपनी तकरीर में हवाला देते हैं कि अल्लाह ने यह बात फलां फलां सूरतों की फलां फलां आयत में फरमाई है, दर असल वह उम्मी मुहम्मद कि बड़ बड़ है जो बार बार कुरआन का पेट भरने के लिए आती है, और आलिमों का पेट इन आयातों कि जेहालत से भारती है.
(सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २३१-२४२)
अल्लाह औरतों के जिंसी और अजदवाजी मसलों की डाल से फुधक कर अफ़साना निगारी की टहनी पर आ बैठता है बद ज़ायका एक किस्सा पढ़ कर, आप भी अपने मुंह का ज़ायका बिगादिए - - -
" तुझको उन लोगों का क़िस्सा तहकीक़ नहीं हुवा जो अपने घरों से निकल गए थे और वह लोग हजारो ही थे, मौत से बचने के लिए. सो अल्लाह ने उन के लिए फ़रमाया कि मर जाओ, फिर उन को जला दिया. बे शक अल्लाह ताला बड़े फज़ल करने वाले हैं लोगों पर मगर अक्सर लोग शुक्र नहीं करते.". (सूरह अल्बक्र २ दूसरा पर आयत २४३)
लीजिए अफ़साना तमाम .क्या फ़ज़ले इलाही? उस जालिम अल्लाह का यही ही जिस ने अपने बन्दों को बे यारो मददगार करके जला दिया ? ये मुहम्मद कि ज़लिमाना फ़ितरत की लाशुऊरी अक्कासी ही है जिसको वह निहायत फूहड़ ढंड से बयान करते हैं.
Tuesday, February 24, 2009
हर्फे-गलत (क़ुरआनी हकीक़तें)
अल्लाह कहता है - - -
" मगर जो लोग तौबा कर लें और इस्लाह कर लें तो ऐसे लोगों पर मैं मुतवज्जो हो जाता हूँ और मेरी तो बकसरत आदत हे तौबा कुबूल कर लेना और मेहरबानी करना."
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १६०)
अल्ला मियां तौबा न करने वालों के हक में फरमाते हैं - - -
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १६१ )
* बहुत सी चाल घात की बातें इस के बाद की आयतों में अल्लाह ने बलाई हैं, अपनी नसीहतें और तम्बीहें भी मुस्लमान बच्चों को दी हैं. कुछ चीजें हराम करार दी हैं, बसूरत मजबूरी हलाल भी कर दी हैं. यह सब परहेज़, हराम, हलाल और मकरूह क़ब्ले इसलाम भी था जिस को भोले भाले मुस्लमान इसलाम की देन मानते हैं.
कहता है - - -
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १७३)
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत१७९)
सूरह की मंदर्जा ज़ेल आयतों में रोज़ों को फ़र्ज़ करते हुए बतलाया गया है कि कैसे कैसे किन किन हालत में इन की तलाफ़ी की जाए. यही बातें कुरानी हिकमत हैं जिसका राग ओलिमा बजाया करते हैं. मुसलमानों की यह दुन्या भाड़ में जा रही है जिसको मुसलमान समझ नहीं पा रहा है. यह दीन के ठेकेदार खैराती मदरसों से खैराती रिज़्क़ खा पी कर फारिग हुए हैं अब इनको मुफ्त इज्ज़त और शोहरत मिली है जिसको ये कभी ना जाने देंगे भले ही एक एक मुस्लमान ख़त्म हो जाए.
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १८४-१८७)
"तुम लोगों के वास्ते रोजे की शब अपनी बीवियों से मशगूल रहना हलाल कर दिया गया, क्यूँ कि वह तुम्हारे ओढ़ने बिछोने हैं और तुम उनके ओढ़ने बिछौने हो। अल्लाह को इस बात की ख़बर थी कि तुम खयानत के गुनाह में अपने आप को मुब्तिला कर रहे थे। खैर अल्लाह ने तुम पर इनायत फ़रमाई और तुम से गुनाह धोया - - -जिस ज़माने में तुम लोग एत्काफ़ वाले रहो मस्जिदों में ये खुदा वंदी जाब्ते हैं कि उन के नजदीक भी मत जाओ। इसी तरह अल्लाह ताला अपने एह्काम लोगों के वास्ते बयान फरमाया करते हैं इस उम्मीद पर की लोग परहेज़ रक्खें " (सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १८७)
" आप से लोग चांदों के हालत के बारे में तहकीक करते हैं, आप फरमा दीजिए कि वह एक आला ऐ शिनाख्त अवकात हैं लोगों के लिए और हज के लिए।
और इस में कोई फ़ज़िलत नहीं कि घरों में उस कि पुश्त की तरफ़ से आया करो। हाँ! लेकिन फ़ज़िलत ये है कि घरों में उन के दरवाजों से आओ।"
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १८९)
अल्लाह कहता है किसी के घर जाओ तो आगे के दरवाजे से, भला पिछवाडे से जाने की किसको ज़रूरत पड़ सकती है मुहम्मद साहब बिला वजेह की बात करते हैं।
"और तुम लड़ो अल्लाह की राह में उन लोगों के साथ जो तुम लोगों से लड़ने लगें, और हद से न निकलो, वाकई अल्लाह हद से निकलने वालों को पसंद नहीं करता और उनको क़त्ल करदो जहाँ उनको पाओ और उनको निकाल बाहर करदो, जहाँ से उन्हों ने निकलने पर तुम्हें मजबूर किया था. और शरारत क़त्ल से भी सख्त तर है - - - फिर अगर वह लोग बाज़ आ जाएँ तो अल्लाह ताला बख्श देंगे.और मेहरबानी फरमाएंगे और उन ललोगों के साथ इस हद तक लड़ो कि फ्सदे अकीदत न रहे और दिन अल्लाह का हो जाए."
जैसे को तैसा, अल्लाह कहता है - - -
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १९४ )
" और जब हज में जाया करो तो खर्च ज़रूर ले लिया करो क्यों की सब से बड़ी बात खर्च में बचे रहना. और ऐ अक्ल वालो! मुझ से डरते रहो. तुम को इस में जरा गुनाह नहीं की हज में मुआश की तलाश करो- - -"
(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १९८)
अल्लाह कहता है अक़्ल वालो मुझ से डरते रहो, ये बात अजीब है कि अल्लाह अक़्ल वालों को खास कर क्यं डराता है? बे वक़ूफ़ तो वैसे भी अल्लाह, शैतान, भूत, जिन्, परेत, से डरते रहते हैं मगर अहले होश से अक्सर अल्लाह डर के भागता है क्यों कि ये मतलाशी होते है सदाक़त के.
"सूरह में हज के तौर तरीकों का एक तवील सिलसिला है, जिसको मुस्लमान निजाम हयात कहता है."(सूरह अलबकर २, दूसरा पारा आयत १९६-२००)