Monday, February 16, 2009

हदीसी हादसात

मैं एक मोमिन हूँ और मेरा दीन है ईमान दारी. दीन एक दरख्त है, ईमान इस का फूल है, और मोमिन इस का फल. इसी फल के बीज से फिर द्ररख्त का वजूद फूटता है, दरख्त में फूल अपनी महक के साथ फिर फूलते हैं और फिर इन्हीं फूलों पर आते हैं दीन के फल. दरख्त, फूल और फल का सिलसिला यूँ ही चलता रहता है. ज़मीन पर ईमान का नक्श ऐ ज़हूर, पैकरे इंसानी है और इंसानी क़दरों की निचोड़ है ईमान. ईमानी अज़मत का निशान है दीन. दीन जो इंसानियत के वजूद से रिफ़ाइन होकर इंसानों के लिए मकनातैशी हो जाता है. कहते हैं फ़लां शख्स बड़ा दीनदार है, यानी वह इंसानी क़दरों के करीब तर है. इसी लिए लोग उसकी तरफ़ खिंचते हैं. यह दीन, जिसकी सिफ़त दयानत है, मोमिन की सिफ़त ईमान है, अम्न, अमीन, और इंसान सब एक ही शजरे के कुदरती फूल और फल हैं. इन पर गौर करने की ज़रूरत है.
अफ़सोस कि दीन की जगह मज़हब ने हत्या लिया है जिसका दीन से दूर दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है. नमाज़, रोजा, हज, ज़कात, वजू, रुकू, सजदा, तहारत, नजासत, इबादत, जेहाद और तबलीग वगैरह मज़हबी कारस्तानियाँ हैं, दीन नहीं. दीन तो दिल से निकली हुई सच्चाई का बेचैन वलवला है. दीन धर्म कांटे का तोला गया सच्चा वज़न है, मान ली गई झूटी अकीदतें नहीं.
आदमी मफरूज़ा आदम से पहले ज़हीन तर जानवर का बच्चा हुवा करता था. मफरूज़ा आदम का वजूद हुवा आदमी जानवर से आदमी बना. वह जब मुहज्ज़ब हुवा, तोंर तरीका और तमाज़त उस में आई, इंसानी दर्द का एहसास जगा तो वह आदमी से इंसान बना. आदमी और इंसान का फर्क ग़ालिब के इस शेर से साफ होता है---------" बस की दुशवार है हर काम का आसाँ होना,
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना:"
इंसानी तहजीब इर्तेकई मरहले से गुज़र रही है. कई ज़मीनी खित्ते ऐसे है जहाँ आज भी इंसान जानवर का बच्चा है. कहीं पर अभी भी इंसान आदमी के बच्चे के इरतेकाई माहोल में पड़ा हुवा है और दुन्या के बहुत से खुश नसीब ज़मीनी टुकड़े हैं जहाँ कहा जा सकता है आदमी इंसान के मुक़ाम को पहुँच चुका है. इंसान को वहां पर लग भग सभी इंसानी हुकूक हासिल हो चुके हैं.
अब हम आते हैं इस्लाम पर ---इस्लाम वह शय है जो तस्लीम हो. इस्लाम, सब से पहले नहा धो कर आँखें बंद कर के बे चूं चरा कलिमा ऐ शहादत पढ़ कर इसे तस्लीम कर लिया जाए. इस्लाम को तस्लीम करलेने के बाद फर्द हर इंसानी मुक़ाम से दस्त बरदार होकर इस्लाम के जायज़ और ना जायज़ हुक्म मानने का पाबन्द हो जाता है. ईमानदार मोमिन होना तो उसके लिए बहुत दूर की बात हो जाती है. इंसानी और ईमानी शजरे की उन मानवी खूबियों से इस्लाम का कोई मतलब गरज़ नहीं जो अलामतें क़बले इस्लाम, हजारो साल पहले इस में उजागर हो चुकी थीं. सच्चाई तो यह है की इस्लाम ने हमारी आंखों में धूल झोंक कर इन क़दरों को इस्लामी इन्कलाब का रद्दे अमल क़रार दे दिया. सदयों बाद हमें लग रहा है दीन और ईमान इस्लाम की बख्शी हुई बरकतें हैं. इस में इस्लामी ओलिमा के झूटे प्रोपेगंडे का बड़ा हाथ है. ईमान इस्लाम से हजारों साल पहले इंसानियत के आते ही वजूद में आ चुका था, जब कि इस्लाम ने इसकी मिटटी पलीद कर दी. ईमान दारी यह है कि बे ईमानी और हठ धर्मी का दूसरा नम इस्लाम है.
ईमान दरी
ईमान दारी यकीनी तौर पर तमाम काम के लिए अम्न और क़याम का दरवाज़ा है और खुदाए मेहरबान के सामने अकीदात का निशान है. जो इसे पा लेता है वह धन दौलत के अंबार पा लेता है. ईमान दारी ही इन्सान की सुरक्षा और चैन का सब से बड़ा द्वार है. हर कम की पुख्तगी ईमानदारी पर निर्भर है. आलमी इज्ज़त, शोहरत और खुशहाली इसी के प्रकाश से चमकते हैं." ( बहा उल्लाह)
वैसे तो हदीस के लफ्ज़ी मानी हैं बात, ज़िक्र या क़िस्सा वगैरह मगर इस्लाम ने कई अल्फाज़ के "इस्लामी कारन" कर लिए हैं, तो इसके इस्लामी इस्तेलाह में मानी ही असल मानी बन गए हैं. अब हदीस का अवामी मानी हो गया है मुहम्मद के फ़रमूदात या फिर उनकी नक्लो हरकत में कही गई बातें. मुहम्मद की तस्लीम रिसालत यानी फ़तह मक्का के बाद ही इन की कही हुई बातों का लोग हवाला देने लगे थे. साथ साथ लोग अपनी बात भी मुहम्मद के हवाले से कहने लगे, गरज़ मुहम्मद के ज़माने से ही हदीसों में मिलावट शुरू हो गई थी जो आज तक जरी है. हदीसों के सैकडों आयमा और दर्जन भर किताबें है, मगर इस के सब से बड़े इमाम " शरीफ मुहम्मद इब्ने इब्राहीम इब्ने मुगीरा जआफी बुखारी" हैं, जिन को उर्फे आम में "इमाम बुखारी" कहा जाता है. यह बज़ाद ख़ुद और इनके पूर्वज आतश परस्त, किसान थे. कहते हैं इमाम बुखारी ने साठ साल की उम्र में इस्लाम कुबूल किया. इनके बारे में बहुत मुबालगा आराइयाँ हैं. इस्लामी आलिमाने दिन लिखते हैं इनको तीन लाख हदीसें याद थीं, छ लाख का मुतालेया था, इस के आलावा इबादत का वह आलम था कि बस लिखने में कराहियत होती है. मुख्तसर यह कि उनकी किताब से फ़क़त २१५५ हदीसें मिलीं.
हदीसों के बारे में थोड़ा और जान लें. कि यह मुहम्मद की ज़िन्दगी में ही इतनी राएज हो गई थी कि उनसे पूछ पुछव्वल की नौबत आ जाती, गरज़ ख़ुद उनको इस पर पाबंदी आयद करनी पड़ी.५०० हदीसें अबुबकर ने आएशा के सामने नज़ारे आतिश किया. ऐसा वक्त आता रहा कि खलीफा हदीसों पर पाबंदियां लगते रहे. मुहम्मद ख़त्म हुए, सहाबी ख़त्म हुए, ताबेइन ख़त्म हुए, ताबा ताबईन ख़त्म हुए, २०० साल गुजर गए, हदीसें नापैद रहीं. उसके बाद फिर इसकी वबा आई सैकडों मुहक़्क़िन पैदा हुए कई किताबें वजूद में आईं, बाज़ी मारा इमाम बुखारी ने जिस का बुखार कुरान के बाद इस्लामी दुन्या पर हदीसों का चढा हुवा है, इमाम बुखारी की तालीफ़ "सहीह बुखारी" पर मुझे सौ फी सदी एतबार है कि उन्हों ने दयानत दारी का मुजाहिरह जिसारत के साथ किया है. न मुहम्मद की जानिब दारी की है न आले रसूल की और न ही अहले रसूल की. बुखारी की तहरीर से सदाक़त का पता चलता है जिसे इस्लामी आलिम शायद नज़र अंदाज़ करते हैं.
दूसरे नम्बर पर इमाम मुस्लिम आते हैं जिनकी तालीफ़ है "सहीह मुस्लिम" इमाम बुखारी की तरह ही इमाम मुस्लिम के बारे में इस्लामी ओलिमा ने निहायत मुबालगे से काम लिया है. लिखते हैं कि मुस्लिम साहब ने चार लाख हदीसें जमा कीं, इनका मुतालेअकिया, जांचा, परखा, इन में से एक लाख रद्द कर दीं. इस काम और जिन्गदी के दीगर ज़रूरी कामों के लिए इमाम साहब को ५०० साल की तवील उम्र चाहए थी मगर पाई सिर्फ़ ५५साल की जिसमें २० साल सोने की और २० साल तालिब इल्मी की घटा दें तो बचे १५ साल. आलिमाने दीन की कज अदाई हमेशा मुसलमानों को नींद की नशा आवर गोलियां देने की रही हैं. यही सब से बड़े इंसानियत के मुजरिम हैं और इन्हों ने ही मुसलामानों को मौत की कगार पर लाकर खडा कर दिया है. यह ज़्यादा तर इन्तेहाई दर्जा कुरीच, अय्यार, और धूर्त होते हैं या फिर अक्ल से पैदल. उम्मते मुहम्मदी तो खैर अक्ल से पैदल पैदाइशी है. इसकी नजात का एक ही हल है कि इन ओलिमा को चुन चुन कर इन से वीराने में हल जुतवाए जाएँ या फिर इन सभों को बहरे अलकाहिल में डुबो दिया जाए. इन की तमाम तस्नीफें आग के हवाले कर दी जाएँ. फिलहाल यह सब मुमकिन नहीं है मगर ऐसा एक दिन ज़रूर आएगा, जब इन के साए से लोग भागेंगे, जैसे खारिश ज़दा कुत्ते को देख कर या गलाज़त आलूद खिंजीर से दूर भागते हैं.
एक मुहक्किक हदीस दूसरे के बारे में कहते हैं,
" अब्दुल्ला बिन मुबारक से रवायत है कि कहा अगर मुझे अख्त्यार दिया जाए जन्नत में जाऊं या पहले अब्दुल्ला बिन मुहर्रिर से मिलूँ तो मैं जन्नत बाद में जाता, पहले इन से मिलता, इन की तारीफ़ सुनता था और इन से मिलने का शौक़ इतना बढ़ गया था. पर जब मैं उन से मिला तो एक ऊँट की मेंगनी मुझे उन से बेहतर लगी.
(मुक़दमा सहीह मुस्लिम)
तो ये रहे भरोसे मंद माजी के लोग और आज के मौजूदा समाज में भी ऐसे टिकया चोर आलिम ही पाए जाते हैं.
ज़ोहरी कहते हैं,

" इस्लाम ज़ुबान से इकरार करना है और ईमान आमाले सालाह को कहते हैं और सहीह यह है कि इस्लाम आम है और ईमान खास, तो हर मोमिन मुस्लिम है, लेकिन हर मुसिम मोमिन होना ज़रूरी नहीं. ईमान की अस्ल तस्दीक है, दिल से यकीन करना और इस्लाम की अस्ल फरमा बरदारी है यानी इताअत ."(सहीह मुस्लिम- - - किताबुल ईमान)

एक हदीस ने मेरे जज़्बात को मजरूह करके रख दिया इन्सानी दिल को बहुत ठेंस लगी, रही सही उनकी (मुहम्मद) इज्ज़त मेरे दिल से जाती रही. किसी ने पूछा " या रसूल अल्लाह ! मेरा बाप जो कबले नबूवत मर गया था, वह कहाँ होगा ? बोले दोज़ख में. वह मायूस होकर पीठ मोड़ कर जाने लगा, आवाज़ दी "सुन! तेरा बाप और मेरा बाप दोनों दोज़ख में होंगे."

मुहम्मद का दबदबा ऐसा था कि जवाब पर सवाल गुस्ताखी मानी जाती. मुहम्मद जब अपनी माँ के पेट में थे तो उनके बाप कि मौत हो गई थी, चालीस साल बाद उनको ख़ुद साख्ता नबूवत की जाल साजी मिली, जिस के जाल में उन्हों ने अपने मरहूम बाप को भी फंसा लिया जिस गरीब को इस्लाम की हवा भी नहीं लगी. ऐसी ही एहसान फरामोशी मुहम्मद ने अपने चाचा अबी तालिब के साथ भी किया, कहा दोज़ख में इन के पैरों में आतिशी जूते होंगेजिन में इन का भेजा पक रहा होगा. मुहम्मद एक ख़ुद परस्त इंसान थे. देखे उन्हों ने कैसी कैसी इंसानियत दुश्मन बातें की हैं अपनी हदीसों में. अकीदत की टोपी और आस्था का चश्मा उतार कर, सदाक़त पर ईमान लाएं.

मुसलमान इस वक्त बहुत बोझिल तबा को ढो रहा है. हर मुस्लमान लाशुऊरी तौर पर बोझिल है, वजह ये है कि वह झूट के जाल में बुरी तरह फँसा हुवा है. कुरानी और हदीसी दरोग के बोझ से दबा हुवा है, घुट रहा है, उसको सदाक़त की राह दिखने वाला कोई नहीं है. जिस दिन मुस्लमान सदाक़त की राह को पा जाएगा, वह दुन्या की बरतर क़ौम होगा. वह मुस्लमान जिस का कोई अल्लाह न होगा, कोई रसूल न होगा, कोई इस्लाम न होगा, वह सिर्फ़ और सिर्फ़ मोमिन होगा. ईमान दार मोमिन और उस मोमिन के पीछे होगा ज़माना. " मोमिन मुतलक "
बईमानाहू
हदीसी हादसे
जैसी नियत वैसी बरकत (१)
ओमर बिन खिज़ाब कहते हैं " मुहम्मद का फ़रमान है कि नियत के इरादे से ही हिजरत का सिलह मिलता है. दुन्या हासिल करने की या औरत " (बुखारी १)
गौर करें, न दीन की, न आकबत की, न कारे खैर की, मुह्सिने इंसानियत के इरादे पर मुलाहिज़ा हों. हज़रात इब्राहीम के बाप तेराह (आज़र) को कई बार खुदा ने ख्वाब में कहा था हिजरत कर, मैं तुझ को दूध और शहद कि नदियों वाला देश दूँगा, बूढा तेराह तो हिजरत कर न सका मगर बेटे इब्राहीम, बहू सारा और भतीजे लूत को हिजरत पर भेज दिया. इंसानी तवारीख की ये पहली हिजरत थी जिसका ख्वाब हर यहूदी अंबिया देखते रहे, यहूदियों का ये ख्वाब, ख्वाब ही रहा जो कभी पूरा न हुवा. यहूदियों का ये ख्वाब एक तशना विरासत है. इस्राईल भी दुन्या के नक्शे पर चन्द रोजा मेहमान है. दर अस्ल यहूदियों के खुदा ने धीरे से इनके कान में यह भी कह दिया था की तुम दुन्या की कौमों में बरतर हो और सब पर हाकिम बनोगे.
देखा गया है हिजरत होती तो है बड़ी मजबूरी में मगर मौक़ा पाते ही जालिम ओ जाबिर हो जाती है. अक्सर महाजिर गालिब और मुकामी मज़लूम हो जाते हैं. हिजरत के ख़िलाफ़ दुन्या में आवाज़ बुलंद हो चुकी है. मुहम्मद की हिजरत तो इस हदीस की नियत से ही ज़ाहिर है कि वह क्या थे. जान बचा कर अपने ससुर अबुबक्र के साथ पैदल मक्का से मदीना भाग कर आने का नाम हिजरत दिया गया और इस पर एक तारीखी सदी हिजरी बन गई मगर इनका पयंबरी नजरिया मुलाहेज़ा हो कि मुहाजिरीन की नियत क्या हो? औरत या दुन्या? दीन और आकबत नदारद जिस के दीवाने मुस्लमान है. मौलाना ठीक ही कहते हैं " हिजरत बमाने हिज्र विसाले सनम जो हो"
वही की आमद (२)
आयशा मुहम्मद की बीवी कहती हैं कि उन्हों ने अपने शौहर से पूछा " आप पर वही कैसे आती है? बोले कभी अन्दर घंटी जैसी बजती है, इस सूरत में बड़ी गरानी होती है और कभी फ़रिश्ता बशक्ल इंसान नाजिल होकर हम कलाम होता है. मैं फ़रमान यादकर लेता हूँ. आएशा कहती हैं सर्दी के ज़माने में जब वही आती थी तो माथे पर पसीने की बूँदें निकल आती थीं "
आएशा सिने बलूगत में आते आते १८ साल कि उम्र में बेवा हो गईं. एक बड़ी तादाद वहियों की उनसे वाबिस्ता है. नाबालिग़ और मासूम क्या समझ सकती थी मुहम्मद की वाहियों का गैर फितरी खेल? जब मुहम्मद ने इस पर इब्ने अब्दुल्ला इब्न बी स्लूल के इल्जाम तराशी के असर में आकर शक किया था और एक महीना तक कता ताल्लुक़ रहे, तब भी शौहर ने माफ़ करने में इसी वही का सहारा लिया और आएशा ने इन की वही की पुड्या को इन के मुंह पर मार दिया और कहा था " मैं और मेरा अल्लाह बेहतर जनता है कि मैं किया हूँ " वही का कारो बार मुहम्मद ने ऐसा ईजाद किया कि मुसलमानों के दिल ओ दिमाग पर काई की तरह ये बैठ कर रह गई है. मुहम्मद से पहले न किसी पर ये वही आई, न मुहम्मद के बाद, चौदह सौ साल गुज़र गए हैं, अल्लाह किसी पर सवार नहीं हुवा, हाँ! शैतान ,भूत, परेत और चुडैल वगैरह मक्कार औरतों पर और अय्यार मरदों पर सवारी करते देखे गए हैं जिन का इलाज झाडुओं की पिटाई से होता है. आख़िर मुसलमान जागता क्यूं नहीं? .





2 comments:

  1. Have you got a book from which you are copying.

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  2. भाई आपकी पूरी तारीफ़ नहीं जानता सो माफी चाहता हूँ पर फ़ख्र होता है खुद पर - ये देख कर मैं एक हिंदू हूँ जिसके भाई आप जैसे मुसलमान हैं। इस हिन्दुस्तान को, इस मादरे वतन को सलाम करने के लिए हाथ खुद ब खुद उठ जाता है जिसने आप जैसे बेहतरीन इंसान को अपनी कोख से पैदा किया है।

    वाह।

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