Sunday, February 15, 2009

हदिसी हादसे 2

3-गार हेरा में वही की पहली आमद
मुहम्मद गारे हरा में दिन भर का खाना लेकर चले जाते, पैगंबरी के लिए मुस्तकबिल की मंसूबा बंदी किया करते. एक दिन आख़िर कार अपनी पैगम्बरी के एलान का इरादा उन्हों ने पक्का कर ही लिया और सब से पहले इसकी आज़माइश अपनी बीवी खदीजा पर किया। कहा,"ऐ खदीजा! मैं गारे-हरा में था कि एक फरिश्ते ने आकर कहा पढ़ ! मैं ने कहा मैं पढा नहीं हूँ , फरिश्ते ने मुझे पकड़ा और दबोचा, इतना कि मैं थक गया और मुझे छोड़ दिया। इसी तरह तीन बार फ़रिश्ते ने मेरे साथ (नज़ेबा) हरकत किया और तीनों बार मैं ने इस को अपने को अनपढ़ होने का वास्ता दिया, तब उस (घामड़) की समझ में आया कि वह जो कुछ पढा रहा है वह बिला किताब कापी स्लेट या सबक के है। चौथी बार उसको अपनी गलती का अहसास हुवा और उसने कहा पढ़ इकरा बिसम रब्बिकल लज़ी खलका यानि अपने मालिक का नाम ले कर पढ़जिस ने तुझे पैदा किया, पैदा किया. पैदा किया आदमी को खून कि फुटकी से और पढ़ तेरा मालिक बड़ी इज्ज़त वाला है, जिसने सिखलाया क़लम से, सिखलाया क़लम से वह जो जनता नहीं था .
(सहीह मुस्लिम - - - किताबुल ईमानबुखारी ३ )
यह होशियार मुहम्मद की पहली वही की कच्ची पुडिया थी, जो गारे हरा से बाँध कर सादः लौह बीवी खदीजा के लिए लाए थे, सीधी सादी खदीजा मुहम्मद के फरेब में आगई. आज की औरत होती तो द्स्यों सवाल दाग कर शौहर को रंगे हाथों पकड़ लेती और कहती खबर दार उस गार में दोबारा रुख मत करना, जहाँ शैतान तुम से ऐसी अहमकाना बातें करता है और दबोचता है. क़लम से तो आदमी आदमी को सिखलाता है या वह इज्ज़त वाला अल्लाह.? झूठे कहीं के, मक्कारी की बातें करते हो.
डर और खौफ की हैबत बनाए मुहम्मद घर आए और बीवी से कहा खदीजा हमें ढांप दो कपडों से, फिर सब बयान किया और कहा मुझे डर है अपनी जान का. खदीजा डर कर मुहम्मद को विरका बिन नोफिल के पास ले गईं जो रिश्ते में इनके चचा या चचा जाद भाई थे और नसरानी थे, उन्हों ने माजरा सुन कर बतलाया यह तो नामूस है जो मूसा पर उतरी थी . काश मैं उस वक्त तक जिंदा रहता. कहा तुम को तुम्हारी क़ौम निकाल देगी क्योकि जब कोई शरीयत और दीन ले कर आता है तो ये क़ौम उस के साथ ऐसा ही करती है. विरका की बातें इस्लामी एजेंटों की बनाई हुई कहानी मालूम पड़ती है।
(सहीह मुस्लिम - - - किताबुल-ईमान)
(४)दूसरी मशक
सहाबी जाबिर कहते हैं मुहम्मद ने कहा "मैं रह गुज़र में था कि आसमान से आवाज़ आई, सर उठा कर देखा तो वही फ़रिश्ता गार वाला कुर्सी पर बैठा नाज़िल हुवा, मैं घर आया चादर उढ़वाई, में डरा दूसरी आयत उसने याद कराई। इस के बाद कुरानी आयत उतरने लगीं.
(बुखारी- - -४)
* यानी मुहम्मद का वहियों का खेल घर के माहौल से शुरू हो गया. मुहम्मद के जाहिल और लाखैरे जान निसारों ने इन बातों का यकीन किया जो कि अहले मक्का नज़र अंदाज़ किया करते थे. वह सोचते कि मुहम्मद के जेहनी खलल से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. इनको गुमान भी न था की इन्हीं जाहिलों की अक्सरियत मक्का में कयाम करती है.
5-मुहम्मद का दावते इस्लाम शाह रूम के नाम - - -
" शुरू करता हूँ मैं अल्लाह ताला के नाम से,जो बडा मेहरबान और रहेम वाला है। मुहम्मद अल्लाह के रसूल कि तरफ से हर्कुल को मालूम हो जो कि रईस है रूम का, सलाम उस शख्स को जो पैरवी करे हिदायत की, बाद इस के मैं तुझ को हिदायत देता हूँ इस्लाम की दावत की, कि मुसलमान हो जा सलामत रहेगा (यानी तेरी हुकूमत,जान, इज्ज़त सब सलामत और महफूज़ रहेगी रहेगी) मुस्लमान हो जा अल्लाह तुझे दोहरा सवाब देगा। अगर तू न मानेगा तो तुझ पर वबाल होगा अरीस्यीन का। ऐ किताब वालो ! मान लो एक बात जो सीधी है और साफ है, हमारे और तुम्हारे दरमियान की, कि बंदगी न करें सिवाय अल्लाह ताला के किसी की,और शरीक न ठहराएँ इसके साथ किसी और को आख़िर आयत तक "
बुखारी - - -(७ )
६-हदीसी रवायत है की अबू सुफियान जब दावते इस्लाम शाह रूम हर्कुल के पास ले कर जाते हैं, वह (हर्कुल) इन से कुछ सवाल ओ जवाब करता है और इनको वहां से जान बचा कर वापस आना पड़ता है।
(सहीह मुस्लिम किताबुल जिहाद ओ सैर)
खत के मज़मून से अंदाजा लगाया जा सकता है की मुहम्मद और उनके मुशीरे कार कितने मुह्ज़्ज़ब थे। यह दवाते इस्लाम थी या अदावत की पहेल ? एक देहाती कहावत है 'काने दादा ऊख दो, तुहारे मीठे बोलन'।इस पर भी इस्लामी ओलिमा तहरीर में खूबियों के पहलू तराशते हैं.
७-मोमिन होने की शर्त
"कोई मोमिन उस वक्त तक अपने आप को मोमिन नहीं कह सकता जब तक कि वह ये आदत अख्तियार न करे कि जो चीज़ वह अपने वास्ते पसंद करता है वह दूसरे मोमिन के वास्ते भी पसंद करे।" ( बुखारी १३)
तअस्सुब और तअस्सुबी अल्फाज़ मुसलमानों का तकिया कलाम हैं। जहाँ कहीं दूसरों में मुसलमानों के लिए रवा दरी न देखी या भेद भाव देखा फट से कह दिया साला तअस्सुबी है, देखिए कि ख़ुद इस्लाम तअस्सुब मुसलमानों को किस तरह घोल घोल कर पिलाता है. हिंदू हिंदू के लिए नर्म गोशा रखे तो तअस्सुबी, मुस्लमान मुस्लमान के लिए हम दर्द रहे तो मोमिन. तअस्सुब का मूजिद भारत में दर अस्ल यही इस्लाम है जो उल्टा तअस्सुब का शिकार हो गया है.
८-मोमिन होने का दावा
" मुहम्मद कहते हैं उस वक्त तक कोई मोमिन होने का दावा नहीं कर सकता जब तक की में उसके मजदीक उसके माँ बाप दोनों से मजदीक न हो जाऊं " मार्फ़त अनस मुहम्मद का फरमान है कि "माँ बाप के अलावः ओलादों से भी ज़्यादा मोमिन को मुहम्मद महबूब हों" (बुखारी १४-१५) {ऐसा ही फरमान ईसा का भी है }
किस हद तक ख़ुद परस्ती की गहरी गार में गिर सकते हैं मुहम्मद, इन हदीसों से अंदाजा लगाया जा सकता है। इस हदीस के असर में आकर उस वक्त के चापलूस सहाबियों ने कहना शुरू कर दिया था , "आप पर मेरे माँ बाप कुर्बान या रसूल अल्लाह!" जिसे अहमक ओलिमा आज तक दोहरा रहे हैं . कोई इन गधों से पूछे कि तुम को अपने खालिक़ को कुर्बान करने का हक किसने दिया है? वह तुम्हारे बनाए हुए या खरीदे हुए खिलौने हैं ? औलाद को कुर्बान करने की बात उस दौर में सहीह कही जा सकती है जो आज जुर्म है. जैसा की इब्राहीम और इशाक की कहानी बनाई गई है. खालिक अपनी तखलीक को मिटा सकती है मगर तखलीक खालिक को नहीं. बन्दा खुदा को नहीं मिटा सकता. कितना सर्द खून उन लोगों का रहा होगा जिन्हों ने मुहम्मद के इस कौल को सुन कर खामोशी अख्तियार कर ली होगी, कितना फासिद खून उन लोगों का रहा होगा जिन्होंने फरमान को लब बयक कहा होगा. और कितना मशकूक खून उन लोगों का रहा होगा जिन्हों ने अपने वालदैन की अजमत को एक ख्याल, एक नज़रिए के बदले बेच दिया. एक लायक माँ बाप के पैर कि धूल भी कोई रसूल नहीं हो सकता.
९- माँ बाप से बढ़ कर
अनस से रवायत है कि मुहम्मद ने कहा "कोई शख्स मोमिन नहीं हो सकता जब तक कि उस को मेरी मुहब्बत माँ बाप औलाद और सब से ज्यदा न हो" (मुस्लिम किताबुल ईमान)
हदीसों के जेहनी गुलाम इस्लामिक दहशत गर्द के मुज्जस्सम सिपाही होते हैं, साथ साथ अपने माँ बाप की नालायक तरीन औलाद भी, समज के बद तर फर्द और किसी अंजान के रेमोट बन जाते हैं। ऍसी हदीसों से तन्हा एह का नुकसान नहीं होता हजारो लायक सपूतों का नुकसान होता है और मुस्लमान रुसवा होते हैं.
१०-अनस कहते हैं "अंसार से मुहब्बत ईमान है और बोग्ज़ निफाक" (बुखारी १७)
११-अंसार और अली से मुहब्बत रखना ईमान है और इन से बोग्ज़ रखना हराम है"
(मुस्लिम - - -किताबुल ईमान)
ईमान की तशरीह मैं शुरू में कर चुका हूँ कि ईमान कोई मान्यता नहीं है बल्कि ज़मीर से निकली हुई आवाज़ है, धरम कांटे की तोल है, अंसार जैसे टिकिया चोरों से मुहब्बत या अली जैसे आबाद बस्ती को नज़रे आतिश करने वाले से मुजरिम से हुब्ब ईमान का पैमाना नहीं होता है।

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